SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६,१०७,१०८ २१५ विशेषार्थ -- इन तीन गाथाओं में आयुकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों के संवेध का गुणस्थानों में विचार किया है । जो इस प्रकार है मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान पर्यन्त अनुक्रम से आयुकर्म के अट्ठाईस आदि भंग होते हैं। गुणस्थानों के यथाक्रम से भंगों की संख्या इस प्रकार है कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में आयुकर्म के सभी अट्ठाईस भंग होते हैं। क्योंकि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों गति के जीव होते हैं और वे यथायोग्य रीति से चारों आयु का बंध करते हैं । जिससे आयु के बंध से पूर्व के, आयु के बंध काल में होने वाले और उसके बाद के ( उपरत बंधकाल के ) सभी भंग यहां संभव हैं । इसलिये नारकों संबन्धी पांच, तिर्यंचों सम्बन्धी नौ, मनुष्यों सम्बन्धी नौ और देवों सम्बन्धी पांच, इस प्रकार कुल मिलाकर अट्ठाईस भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं । 'सासणि छवीसा' अर्थात् सासादन गुणस्थान में छब्बीस भंग होते हैं । क्योंकि सासादन गुणस्थान में वर्तमान मनुष्य, तिर्यंच नरकायु का बंध नहीं करते हैं । जिससे मनुष्य तिर्यंचों के परभवायु के बंधकाल में होने वाला एक-एक भंग नहीं होता है। इसलिये छब्बीस भंग होते हैं | 1 मिश्रदृष्टिगुणस्थान में सोलह भंग होते हैं । इसका कारण यह है कि मिश्रगुणस्थान में वर्तमान कोई भी जीव परभवायु का बंध नहीं करता है, इसलिये आयु के बंधकाल में होने वाले नारक के दो भंग, तिर्यंच और मनुष्य के चार-चार भंग तथा देवों के दो भंग कुल बारह भंगों को छोड़कर शेष सोलह भंग मिश्रदृष्टि गुणस्थान में होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बीस भंग होते हैं । इस गुणस्थान में वर्तमान देव, नारक मनुष्यायु का और तिर्यंच, मनुष्य देवायु का बंध करते हैं । जिससे देव और नारक को तिर्यंचाय के बंधकाल के दोनों के मिलकर होने वाले दो भंग और मनुष्य, तिर्यंच को नारक और तिर्यच आयु के बंधकाल के दोनों के मिलकर होने वाले 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy