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पंचसंग्रह : १०
छह भंग, सब मिलकर आठ भंगों के सिवाय शेष बीस भंग चौथे गुणस्थान में होते हैं ।
देशविरतगुणस्थान में बारह भंग होते हैं - 'देस विरियम्मि बारस' । क्योंकि यह गुणस्थान देव व नारकों के नहीं किन्तु मात्र मनुष्य व तिर्यंचों के होता है और वे भी मात्र देवायु का ही बंध करते हैं। जिससे देव के पांच भंग, नारक के पांच भंग और मनुष्यों, तिर्यंचों के मनुष्यायु, तिर्यंचा और नरकायु के बंधकाल के दोनों के मिलकर होने वाले छह भंग, कुल सोलह भंग अट्ठाईस में से कम करने पर बारह भंग ही होते हैं । और वे इस प्रकार हैं-- तिर्यंच और मनुष्य को प्रत्येक को बंधकाल से पूर्व का एक-एक भंग, परभवायु बंध काल का भी एक-एक भंग और परभवायु का बंध करने के बाद के चार-चार भंग, इस प्रकार कुल बारह भंग इस गुणस्थान में होते हैं । कितने ही मनुष्य, तिर्यंच मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु का बंध करके भी यह गुणस्थान और इसके बाद के प्रमत्त, अप्रमत्त संयत गुणस्थान भी प्राप्त करते हैं । जिससे परभवायु बंधकाल के बाद के चार भंग सातवें गुणस्थान तक संभव हैं ।
प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान में छह भंग होते हैं । इन गुणस्थानों को मात्र मनुष्य ही प्राप्त करता है । जिससे देवाश्रयी पांच, नरकाश्रयी पाँच तथा तिर्यंचाश्रयी नौ कुल उन्नीस भंग तो संभव नहीं हैं किन्तु मनुष्य के नौ भंगों में से भी मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु के बंधकाल के तीन भंग नहीं होते हैं । शेष छह भंग प्रमत्त अप्रमत्त संयत गुणस्थानों में होते हैं ।
अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर संपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशांतमोह गुणस्थान में उपशमश्रेणि आश्रयी ये दो भंग होते हैं - १ मनुष्यायु का उदय, मनुष्यायु की सत्ता । यह परभवायु का बंध करने के पूर्व उपशमश्रेणि पर आरूढ़ होने वाले के होता है । अथवा २ मनुष्यायु का उदय और देव- मनुष्यायु की सत्ता । यह भंग देवायु का बंध करके उपशमश्रेणि पर आरूढ़ होने वाले को होता है ।
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