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लिपिकारों द्वारा अन्तर्भाष्य गाथाओं को मूल गाथा के रूप में अथवा प्रकरणोपयोगी अन्य गाथाओं को मूल गाथा के रूप में स्वीकार किया जाना। ____ इस स्थिति में हम यह मानकर चलें, प्रकरण के नामकरण के लिए गाथा संख्या पर भार न दें, परन्तु पूर्वकालीन नाम का बोध कराने के लिये ही सप्ततिका यह नाम रखा गया है और पूर्व में सप्ततिका में जो वर्णन था उसका गाथा प्रमाण बढ़ाकर भी यहाँ प्रतिपादन कर दिया गया है। ऐसा करने से गाथाओं की संख्या एवं नाम के बारे में विवाद को अवकाश नहीं रहता है। सप्ततिका और चन्द्रषि महत्तर
आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर ने अपने पंचसंग्रह में सप्ततिका नामक ग्रन्थ संगृहीत किया है और उस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी लिखी है। लेकिन इसके पूर्व ग्रन्थकार आचार्य एक अज्ञातकत क सप्ततिका पर २३०० श्लोक प्रमाण चूणि का आलेखन कर चुके थे। चूणि लिखते समय सम्भवतः उन्हें यह स्पष्ट हो चुका था कि संख्या के आधार पर ग्रन्थ का नामकरण करने की दृष्टि से अधिकृत वर्ण्य विषय से सम्बन्धित बहुत सा अंश छूट गया है । जिसका खुलासा करने के लिए अनेक ग्रन्थों के उद्धरण दिये एवं उद्धरण देते समय शतक,सत्कर्म प्राभत, कषायप्राभृत और कर्मप्रकृति संग्रहणी का भरपूर उपयोग किया। अब यदि उसी त्रुटि को पुनः दुहरा दिया जाये तो श्रम निष्फल है तथा पाठकों और ग्रन्थ के प्रति भी न्याय नहीं होगा। इसीलिए इसकी पूर्ति हेतु गाथा संख्या में वृद्धि करना अपेक्षित है। यह कार्य चूर्णि की रचना करते समय तो नहीं किया जा सकता था, लेकिन अपने रचित पंचसंग्रह के सप्ततिका प्रकरण में उन विषयों का समावेश करने के लिए गाथाओं की संख्या में वृद्धि करना उचित समझा और वैसा किया।
ऐसा करके भी आचार्य ने सप्ततिका नाम इसीलिये रखा कि पाठकों को यह ध्यान रहे कि पूर्व परम्परा से सप्ततिका प्रकरण के
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