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लिये निर्धारित विषय का ही यहाँ प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार गाथाओं की संख्या में भिन्नता होने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ग्रन्थकार आचार्य का लक्ष्य पंचसंग्रह में वर्णन की क्रमबद्धता रहा है और इसलिए ग्रन्थान्तरों में आगत गाथाओं का समावेश भी कर लिया । वे गाथाएँ किन ग्रन्थान्तरों से ली हैं, यह अनुसन्धानीय है। ___इस प्रकार से पंचसंग्रहगत सप्ततिका के बारे में यत्किचित् संकेत करने के बाद अब प्रस्तुत सप्ततिका के विषय का परिचय कराते हैं। वर्ण्य विषय परिचय
पूर्व के प्रकरणों में मूल और उत्तर प्रकृतियों के जिस बंधविधान का वर्णन किया है और प्रासंगिक होने से बंधनकरण आदि आठ करणों की व्याख्या की है, अब उसी बंधविधान के संवेध का यहाँ विचार किया गया है।
संक्षेप में यह वर्ण्य विषय की रूपरेखा है । जिसका कुछ विस्तार के साथ परिचय इस प्रकार से जानना चाहिए
प्रारम्भ में प्रकरण के प्रतिपाद्य विषय का संकेत करके सर्वप्रथम मूलप्रकृतियों विषयक बंध का बंध के साथ संवेध का निरूपण किया है। अनन्तर इसी क्रम में मूलप्रकृतियों सम्बन्धी उदय और सत्ता का, फिर उदय का बंध के साथ संवेध बतलाया और इसी तरह बंध के साथ सत्ता के एवं बंध के साथ उदय के संवेध का विचार किया है। जिसका सारांश यह हुआ कि मूल प्रकृतियों सम्बन्धी बंध के साथ बंध के, उदय के साथ उदय के, सत्ता के साथ सत्ता के, बंध के साथ उदय और सत्ता के, उदय और सत्ता के साथ बंध के संवेध का सयुक्तिक विचार किया है।
तदनन्तर सामान्य से किये गये उक्त संवेध विचार को गुणस्थान और जीवस्थान भेदों में घटित किया है।
तत्पश्चात् उत्तरप्रकृतियों के संवेध का विचार करने की भूमिका के रूप में दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्म के सिवाय शेष पाँच
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