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________________ ३३२ पंचसंग्रह : १० आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग और तीर्थंकर नाम इन तीन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। क्योंकि तोर्थंकर-नाम के बंध में सम्यक्त्व और आहारकद्विक के बंध में संयम हेतु है। परन्तु मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सम्यक्त्व या चारित्र में से एक भी हेतु नहीं है । इसलिए इन तीन प्रकृतियों के सिवाय शेष एक सौ सत्रह प्रकृतियाँ मिथ्यादृष्टि को बंधती है। सासादन गुणस्थान में एक सौ एक बंधती हैं । क्योंकि मिथ्यात्व, नपुसकवेद, नरकत्रिक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, सेवार्त संहनन, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और आतप इन सोलह प्रकृतियों का मिथ्यात्व गुणस्थान में बंध विच्छेद होता है तथा तीर्थकरनाम और आहारकद्विक रूप तीन प्रकृतियाँ पूर्वोक्त युक्ति से यहाँ भी नहीं बंधती हैं। इसलिए सासादन गुणस्थान में एक सौ एक प्रकृतियाँ बंधती हैं। मिश्र गुणस्थान में चौहत्तर प्रकृतियाँ बंधती हैं। इसका कारण यह है कि पूर्वोक्त एक सौ एक प्रकृतियों में से स्त्यानद्धित्रिक, स्त्रीवेद, अनन्तानुबंधिचतुष्क, तिर्यंचत्रिक, मध्यम चार संहनन, चार संस्थान, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, अनादेय, दुःस्वर और नीच गोत्र इन पच्चीस प्रकृतियों का सासादन गुणस्थान में बंधविच्छेद होता है तथा मिश्रदृष्टि तथास्वभाव से किसी भी आयु का बंध आरम्भ नहीं करता है, जिससे यहाँ मनुष्यायु और देवायु का भी बंध नहीं होता है। इसलिए एक सौ एक में से सत्ताईस प्रकृतियों को कम करने पर मिश्रदृष्टि गुणस्थान में चौहत्तर प्रकृतियों का बंध होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में सतहत्तर प्रकृतियाँ बंधयोग्य हैं। इनमें चौहत्तर तो पूर्व में कही जा चुकी हैं और इस गुणस्थान में मनुष्यायु, देवायु और तीर्थकरनाम ये तीन प्रकृतियाँ भी बंधयोग्य अध्यवसाय होने से बंधती हैं। जिससे इस गुणस्थान में सतहत्तर प्रकृतियाँ बंधती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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