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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४३, १४४,१४५ सत्तट्ठी - सड़सठ, तिगसट्ठी - त्र ेसठ, गुणसट्ठी - उनसठ अट्ठावन्नाअट्ठावन, य— ओर । 1 ३३१ निधादुगे - निद्राद्विक, छवण्णा - छप्पन, छठवीस-छब्बीस, णामतीसविरमंमि- नामकर्म की तीस प्रकृतियों का विच्छेद होने पर, हासरई मयकुच्छाविरमे - हास्य, रति, भय, जुगुप्सा का विच्छेद होने पर, बावीस-बाईस, पुध्वंमि - अपूर्वकरण में । --- पुवेयको हमाइसु - पुरुषवेद क्रोधादि का अबज्झमणेसु -- बंध नहीं होने पर, पंच ठाणाणि -- पांच बंधस्थान, बारे-- - बादर संपराय में, गुहुमे सूक्ष्मसंपराय में, सत्तरस - सत्रह, पगतिओ — प्रकृतियां, सायमियरेसु—अन्य गुणस्थानों में एक सातावेदनीय । गाथार्थ - मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में यथाक्रम से पहले में एक सौ सत्रह, दूसरे में एक सौ एक, तीसरे में चौहत्तर, चौथे में सतहत्तर, पाँचवें में सड़सठ, छठे में त्रेसठ, सातवें में उनसठ, अपूर्वकरण में अट्ठावन, निद्राद्विक का विच्छेद होने पर छप्पन, नाम की तीस प्रकृतियों का विच्छेद होने पर छब्बीस और हास्य, रति, भय, जुगुप्सा का बंधविच्छेद होने के बाद अनिवृत्तिबादरसंपराय में बाईस प्रकृतियों का बंध होता है तथा वहीं पुरुषवेद और क्रोधादि का अनुक्रम से बंध विच्छेद होने पर इक्कीस आदि पाँच बंधस्थान होते हैं, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में सत्रह प्रकृतियों का और शेष तीन गुणस्थान में एक सातावेदनीय का बंध होता है । ( अयोगिकेवली गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का बंध नहीं होता है ।) विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में गुणस्थानों में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या का निर्देश किया है । यथाक्रम से जिसका विस्तृत स्पष्टीकरण इस प्रकार है बंधापेक्षा ज्ञानावरण आदि आठों मूल कर्म की एक सौ बीस प्रकृतियाँ मानी जाती हैं । उनमें से पहले मिथ्यादृष्टि - गुणस्थान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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