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________________ ३३० पंचसंग्रह : १० सम्यक्त्व में अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर उपशांतमोहगुणस्थान तक, क्षायिक सम्यक्त्व में अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवलीगुणस्थान तक, मिथ्यात्व में मिथ्यात्व गुणस्थान, सासादन में सासादन गुणस्थान और मिश्र सम्यक्त्व में मिश्र गुणस्थान की तरह बंधादि जानना चाहिये। संज्ञी मार्गणा में मनुष्य गति के अनुरूप एवं असंज्ञी मार्गणा में मिथ्यात्व एवं सासादन गुणस्थान के समान बंधादि जानना चाहिये । आहारकमार्गणा के भेद अनाहारक में मिथ्यादृष्टि, सासादन, अविरतसम्यग्दष्टि, सयोगि केवली और अयोगि केवली गुणस्थान की तरह और आहारक में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान • तक की तरह बंधादि का विधान जानना चाहिये ।। इस प्रकार से सत्पदप्ररूपणा का आशय जानना चाहिये । अब बंधापेक्षा द्रव्य प्रमाण का कथन करने के लिये चौदह गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की बंधसंख्या बतलाते हैं। गुणस्थानों में बंध-प्रकृतियों की संख्या सत्तरसुत्तरमेगुत्तरं तु चोहत्तरोउ सगसयरी। सत्तट्ठी तिगसट्ठी गुणसट्ठी अट्ठवन्ना य ॥१४३॥ निद्दादुगे छवण्णा छब्बीसा णामतीसविरमंमि । हासरईभयकुच्छाविरमे बावीस पुवंमि ॥१४४॥ पुवेयकोहमाइसु अबज्झमाणेसु पंचठाणाणि । बारे सुहमे सत्तरस पगतिओ सायमियरेसु ॥१४॥ शब्दार्थ-सत्तरसुत्तरमेगुत्तर--सत्रह और एक अधिक सौ अर्थात् एक सौ सत्रह, एक सो एक, तु-और, चोहत्तरीउ-चौहत्तर, सगसयरी-सत्तहत्तर, १. मार्गणा स्थानों में आठकों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के बंधादि स्थानों के प्रारूप परिशिष्ट में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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