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सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४३, १४४, १४५
देशविरत गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, मनुष्यत्रिक, प्रथम संहनन और औदारिकद्विक इस प्रकार दस प्रकृतियों के कम करने पर सड़सठ प्रकृतियों का बंध होता है । इस गुणस्थान में देशविरति रूप गुण के निमित्त से अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय का अभाव होने से ये दस प्रकृतियाँ बंधती नहीं हैं, इसलिए सड़सठ प्रकृतियाँ बंध योग्य हैं ।
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इनमें से प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का विच्छेद होने पर प्रमत्तसंयत गुणस्थान में त्रेसठ प्रकृति बंधयोग्य हैं । प्रत्याख्यानावरण कषाय का बंध नहीं होने का कारण उनके उदय का अभाव है । इस गुणस्थान में सर्वविरति साधु को उन कषायों का उदय नहीं होता है ।
इन प्रकृतियों में से अस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति, असातावेदनीय, शोक और अरति मोहनीय इन छह प्रकृतियों को कम करने पर और आहारकद्विक को मिलाने पर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उनसठ प्रकृतियों का बंध होता है । अप्रमत्त यति, विशुद्ध संयमी होने से अस्थिरादि छह प्रकृतियों को नहीं बाँधता है और तद्योग्य विशुद्ध अध्यवसाय होने से आहारकद्विकका बंध करता है । इसलिए अप्रमत्तयति को उनसठ प्रकृतियों का बंध होता है ।
देवायु के बिना अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव अट्ठावन प्रकृतियों का बंध करता है । अपूर्वकरणादि गुणस्थानवर्ती अतिविशुद्ध परिणाम के योग से आयु के बंध को प्रारम्भ ही नहीं करता है । इन अट्ठावन प्रकृतियों का बंध अपूर्वकरण के सात भाग में पहले भाग तक ही होता है । पहले भाग के चरम समय में निद्रा और प्रचला का बंधविच्छेद होता है, जिससे दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें और छठे भाग तक छप्पन प्रकृति बंधती हैं और छठे भाग के अंत में देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, तैजस, कार्मण, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, त्रसनवक, प्रशस्त विहायोगति, निर्माण और तीर्थंकरनाम इन तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है। इन तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद
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