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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११६
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अविरतसम्यग्दृष्टि के साठ और देशविरत के बावन कुल एक सौ बारह पद होते हैं । इनको उन गुणस्थान सम्बन्धी छह उपयोगों से गुणा करने पर (११२x६ = ६७२) छह सौ बहत्तर ध्रुवपद चौबीसी होती हैं ।
प्रमत्तसंयत गुणस्थान में चवालीस, अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में चवालीस और अपूर्वकरण में बीस, कुल एक सौ आठ ध्रुवपद होते हैं । इनको उन गुणस्थानों में सम्भव सात उपयोगों से गुणा करने पर सात सौ छप्पन ध्रुवपद चौबीसी होती हैं ।
इन सब ध्रुवपद की चौबीसियों का कुल जोड़ दो हजार अठासी है । इस संख्या को चौबीस से गुणा करने पर आठवें गुणस्थान तक के पचास हजार एक सौ बारह उदयपद होते हैं तथा दो के उदय से होने वाले चौबीस पद और एक के उदय से होने वाले पाँच पद, कुल उनतीस होते हैं । उनको नौवें, दसवें गुणस्थान में संभव सात उपयोगों से गुणा करने पर दो सौ तीन होते हैं। इनको पूर्व राशि में मिलाने पर उपयोग के भेद से होने वाले उदयपदों की कुल संख्या पचास हजार तीन सौ पन्द्रह होती है ।
इस प्रकार उपयोग भेद की अपेक्षा उदयभंग और उदयपदों को जानना चाहिये | अब लेश्या से गुणा करने पर होने वाले उदयभंग और उदयपदों का विचार करते हैं ।
लेश्यापेक्षा उदयभंग और उदयपद
तिगहीणा तेवन्नसया उ उदयाण होंति लेसाणं । अडतीससहस्साइं पयाण सय दो य सगतीसा ॥ ११६ ॥
शब्दार्थ - तिगहोणा—तीन न्यून, तेवन्नसया - त्रपन सो, उ- और, उदयाण - उदयभंग, होंति होती है, साणं- लेश्याओं के, अडतीस सहस्सा इंअड़तीस हजार, पयाण - उदयपद, सब वो-दो सौ, य― और, सगतीसासैंतीस ।
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