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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२०
यहाँ जो वैक्रियमिश्रकाययोग भवान्तर में उत्पन्न होने पर कहा है, वह बहुलता की अपेक्षा है। क्योंकि प्रत्येक देव और नारक को अपर्याप्तावस्था में वैक्रियमिश्रयोग होता है। यदि ऐसा न हो तो वैक्रियशरीर करते पर्याप्त मनुष्यों, तिर्यंचों के भी वैक्रियमित्र होता है। परन्तु सप्ततिका चूर्णिकार ने उसकी विवक्षा नहीं की है।
उक्त बारह चौबीसी को चौबीस से गुणा करने पर दो सौ अठासी भंग होते हैं। इतने भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में असम्भव हैं, नहीं होते हैं।
वैक्रियमिश्रकाययोग में वर्तमान सासादन सम्यग्दृष्टि को नपुसकवेद का उदय नहीं होता है। क्योंकि वैक्रियमिश्र देव और नारकों के होता है । सासादन गुणस्थान लेकर देव में ही उत्पन्न होता है, नारक में उत्पन्न नहीं होता है और देव पुरुष और स्त्रीवेदी होते हैं, परन्तु नपुसकवदी नहीं होते हैं । इसलिये सासादन गुणस्थान में होती चार चौबीसियों के छियानवै भंग में से नपुसकवेद के उदय वाले बत्तीस भंग नहीं होते हैं । तथा
कार्मणकाययोग और वैक्रियमिश्रकाययोग में अविरतसम्यग्दृष्टि को स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है। क्योंकि कार्मणकाययोग और वैक्रियमिश्रकाययोग वाले स्त्रीवेद में अविरतसम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते हैं । सम्यक्त्वयुक्त मनुष्य और तिर्यंच को नरक में जाने पर मात्र नपुसकवेद का उदय होता है और देव में जाने पर पुरुषवेद का ही उदय होता है, परन्तु स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है। जिससे अविरतसम्यग्दृष्टि को स्त्रीवेद में कार्मणकाययोग और वैक्रियमिश्रयोग नहीं होता है। __ यह कथन बहुलता की अपेक्षा समझना चाहिये। क्योंकि किसी समय स्त्रीवेदी में भी अविरतसम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति होती है। सप्ततिकाचूर्णि में कहा है किसी समय स्त्रीवेदी में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाले की उत्पत्ति भी होती है। परन्तु अनेक जीवों की
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