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________________ २३६ पंचसंग्रह : १० इन उदय भंगों में से जो भंग संभव नहीं हैं उन भंगों को कम करना चाहिये । अतएव अब जो भंग संभव नहीं हैं और वे संभव क्यों नहीं है, इसको स्पष्ट करते हैं-. वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र और कामणकाययोग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि को अनन्तानुबंधि के उदय बिना की सात के उदय की एक, आठ के उदय की दो और नौ के उदय की एक इस प्रकार चार चौबीसी नहीं होती हैं । इसका कारण यह है जो आत्मा पहले क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होने पर अनन्तानुबंधि की विसंयोजना कर कालान्तर में परिणामों के परावर्तन द्वारा सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में आकर मिथ्यात्व रूप हेतु के द्वारा अनन्तानुबंधि का बंध प्रारम्भ करे, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव को एक आवलिका काल पर्यन्त अनन्तानुबंधि का उदय नहीं होता है। इसके सिवाय सम्यक्त्व से गिरकर आने वाले जीव के अनन्तानुबंधि का उदय अवश्य होता है । अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने के बाद सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में आने वाले का जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त आयु अवशेष होता है, जिससे उसी भव में वर्तमान वह जीव मिथ्यात्व रूप हेतु द्वारा अनन्तानुबंधि को बांधता है और बंधावलिका के जाने के बाद उसका वेदन भी करता है। जिससे विग्रहगति में रहते और भवान्तर में उत्पन्न होते मिथ्यादृष्टि को अनन्तानुबंधि का उदय अवश्य होता है। इसलिये उसके उदय बिना के उदय के विकल्प कार्मण, औदारिक मिश्र और वैक्रियमिश्र में नहीं होते हैं। क्योंकि कार्मणयोग विग्रह गति में और उत्पत्ति के प्रथम समय में होता है और औदारिकमिश्र तथा वैक्रियमिश्र भवान्तर में उत्पन्न होते जीव को उत्पत्ति के दूसरे समय से अपर्याप्तावस्था में होता है। जिससे कार्मणकाययोग में सात के उदय की एक, आठ के उदय की दो और नौ के उदय की एक, इस प्रकार कुल चार तथा इसी तरह औदारिकमिश्र की चार और वैक्रियमिश्र की चार कुल बारह चौबीसी नहीं होती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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