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________________ २३८ पंचसंग्रह : १० अपेक्षा जो संभव है उसका निर्देश यहाँ किया है। अतएव आठ चौबीसी के एक सौ बानवे भंगों में से स्त्रीवेद के उदय से होने वाले चौसठ भंग कार्मण काययोग में और चौंसठ वैक्रियमिश्रकाययोग में नहीं होते हैं और दोनों को मिलाकर एक सौ अट्ठाईस भंग नहीं होते हैं। औदारिकमिश्रकाययोग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि को एक पुरुषवेद ही होता है। स्त्रीवेद या नपुसकवेद नहीं होता है । क्योंकि सम्यक्त्वयुक्त जीव तिर्यंच या मनुष्य में उत्पन्न हो तो पुरुषवेदी में ही उत्पन्न होता है, स्त्री वेदी और नपुसकवेदी में उत्पन्न नहीं होता है। जिससे आठ चौबीसी के एक सौ बानव भंग में से स्त्रीवेद और नपुसकवेद के उदय से होने वाले एक सौ अट्ठाईस भंग औदारिकमिश्रकाययोग में नहीं होते हैं। यह कथन भी बहुलता की अपेक्षा समझना चाहिये। क्योंकि मल्लिनाथ और राजिमती जैसे अविरत सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व के साथ स्त्रीवेदी में भी उत्पन्न होते हैं। परन्तु वैसी संख्या अल्प होने से यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की है। इस प्रकार सब मिलाकर दो सौ छप्पन भंग अविरतसम्यग्दृष्टि में सम्भव नहीं है। प्रमत्तसंयत के आहारक और आहारकमिश्रकाययोग में स्त्रीवेद नहीं होता है। आहारकशरीर चौदह पूर्वधारी को ही होता है और स्त्रियों को चौदह पूर्व का अध्ययन सम्भव नहीं है । इसलिये प्रमत्तसंयत गुणस्थान की आठ चौबीसी के एक सौ बानवै भंगों में से स्त्रीवेद के उदय में होने वाले चौंसठ भंग आहारककाययोग के और चौंसठ भंग आहारकमिश्रकाययोग के कुल एक सौ अट्ठाईस भंग नहीं होते हैं तथा अप्रमत्तसंयत को भी पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार आहारककाययोग में स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है। इसलिये अप्रमत्तसंयत की आठ चौबीसी के एक सौ बानवै भंगों में से स्त्रीवेद के उदय में होने वाले चौंसठ भंग आहारककाययोग में नहीं होते हैं। अप्रमत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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