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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२०
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संयत को आहारककाययोग ही होता है, आहारकमिश्रकाययोग नहीं होता है । इसलिये चौंसठ भंगों का निषेध किया है।
इस प्रकार भिन्न-भिन्न गुणस्थानों में अमुक-अमुक योग में नहीं होने वाले भंगों का जोड़ सात सौ अड़सठ हैं । इतने भंग पूर्व के चौदह हजार नौ सौ सैंतीस भंगों में से कम करने पर चौदह हजार एक सौ उनहत्तर भंग होते हैं ।
इस प्रकार से योगापेक्षा मोहनीयकर्म के गुणस्थानों में उदयभंग जानना चाहिये | अब योगगुणित पद संख्या का विचार करते हैं
मिथ्यादृष्टि के अड़सठ ध्रुवपद हैं। जिनको तेरह योगों से गुणा करने पर आठ सौ चौरासी होते हैं ।
सासादन गुणस्थान में बत्तीस ध्रुवपद हैं । उनको भी तेरह योग से गुणा करने पर चार सौ सोलह होते हैं ।
मिश्रगुणस्थान में भी बत्तीस ध्रुवपद हैं। उनको दस योगों से गुणा करने पर तीन सौ बीस होते हैं ।
अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में साठ ध्रुवपद हैं । उनको तेरह से गुणा करने पर सात सौ अस्सी होते हैं ।
देशविरतगुणस्थान में बावन ध्रुवपद हैं। जिनको ग्यारह योगों से गुणा करने पर पाँच सौ बहत्तर होते हैं ।
प्रमत्तसंयत गुणस्थान में चवालीस ध्रुवपद हैं। जिनको तेरह योगों से गुणा करने पर पाँच सौ बहत्तर होते हैं ।
अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भी चवालीस ध्रुवपद हैं। जिनको ग्यारह योगों से गुणा करने पर चार सौ चौरासी होते हैं ।
अपूर्वकरणगुणस्थान में बीस ध्रुवपद हैं । उनको नौ योगों से गुणा करने पर एक सौ अस्सी होते हैं ।
उक्त सब मिलाकर बयालीस सौ आठ होते हैं और इनको चौबीस से गुणा करने पर एक लाख नौ सौ बानवे होते हैं तथा दो के उदय
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