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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२० २३६ संयत को आहारककाययोग ही होता है, आहारकमिश्रकाययोग नहीं होता है । इसलिये चौंसठ भंगों का निषेध किया है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न गुणस्थानों में अमुक-अमुक योग में नहीं होने वाले भंगों का जोड़ सात सौ अड़सठ हैं । इतने भंग पूर्व के चौदह हजार नौ सौ सैंतीस भंगों में से कम करने पर चौदह हजार एक सौ उनहत्तर भंग होते हैं । इस प्रकार से योगापेक्षा मोहनीयकर्म के गुणस्थानों में उदयभंग जानना चाहिये | अब योगगुणित पद संख्या का विचार करते हैं मिथ्यादृष्टि के अड़सठ ध्रुवपद हैं। जिनको तेरह योगों से गुणा करने पर आठ सौ चौरासी होते हैं । सासादन गुणस्थान में बत्तीस ध्रुवपद हैं । उनको भी तेरह योग से गुणा करने पर चार सौ सोलह होते हैं । मिश्रगुणस्थान में भी बत्तीस ध्रुवपद हैं। उनको दस योगों से गुणा करने पर तीन सौ बीस होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में साठ ध्रुवपद हैं । उनको तेरह से गुणा करने पर सात सौ अस्सी होते हैं । देशविरतगुणस्थान में बावन ध्रुवपद हैं। जिनको ग्यारह योगों से गुणा करने पर पाँच सौ बहत्तर होते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में चवालीस ध्रुवपद हैं। जिनको तेरह योगों से गुणा करने पर पाँच सौ बहत्तर होते हैं । अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भी चवालीस ध्रुवपद हैं। जिनको ग्यारह योगों से गुणा करने पर चार सौ चौरासी होते हैं । अपूर्वकरणगुणस्थान में बीस ध्रुवपद हैं । उनको नौ योगों से गुणा करने पर एक सौ अस्सी होते हैं । उक्त सब मिलाकर बयालीस सौ आठ होते हैं और इनको चौबीस से गुणा करने पर एक लाख नौ सौ बानवे होते हैं तथा दो के उदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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