SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२१,१२२,१२३,१२४ २४१ नौ सौ साठ होते हैं और कुल मिलाकर अविरतसम्यग्दृष्टि को एक हजार नौ सौ बीस पद सम्भव नहीं हैं। आहारक और आहारकमिश्र काययोग में वर्तमान प्रमत्तसंयत को स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है। प्रमत्तसंयतगुणस्थान में चवालीस ध्रुवपद होते हैं। चवालीस में से स्त्रीवेद में आठ भंग होते हैं । अतः आठ को चवालीस से गुणा करने पर तीन सौ बावन होते हैं। इतने आहारक और आहारकमिश्र काययोग में नहीं होते हैं और दोनों के मिलकर प्रमत्तसंयत के सात सौ चार पद सम्भव नहीं हैं । आहारक काययोग में वर्तमान अप्रमत्तसंयत को भी उक्त प्रकार से तीन सौ बावन पद संभव नहीं होते हैं। ____ इस प्रकार पहले, दूसरे आदि गुणस्थानों में सब मिलाकर असंभवित पदों की संख्या पचपन सौ छत्तीस (५५३६) होती है । पूर्व राशि में से इतने पद कम करने पर पंचानवै हजार सात सौ सत्रह (६५७१७) रहते हैं। योग के साथ गुणित मोहनीयकर्म के इतने पद सभी गुणस्थानों में होते हैं। उदयपद के भंगों को बताने के प्रसंग में कम करने योग्य उदयभंगों का उल्लेख किया है। लेकिन अधिक सुगमता से बोध कराने के लिये सूत्र संकेत रूप में ग्रन्थकार आचार्य स्पष्ट करते हैं मीसद्गे कम्मइए अणउदविवज्जियाउ मिच्छस्स । चउवीसाउ ण चउरो तिगुणाओ तो रिणं ताओ ॥१२॥ वेउव्वियमीसम्मि नपुसवेओ न सासणे होइ । चउवीसचउक्काओ अओ तिभागा रिणं तस्स ॥१२२॥ कम्मयविउविमीसे इत्थीवेओ न होइ सम्मस्स । अपुमिस्थि उरलमीसे तच्चउवीसाण रिणमेय ॥१२३॥ आहारगमीसेसु. इत्थीवेओ न होइ उ पमत्ते। दोणि तिभागाउ रिणं अपमत्तजइस्स उतिभागो॥१२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy