________________
२१८
पंचसंग्रह : १० उच्चेणं-उच्चगोत्र के, बन्धुदए-बंध और उदय वाला, जा सुहुमोसूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक, छट्ठओ भंगो-छठा भंग, उवसंता-उपशांतमोह गुणस्थान से, जाऽजोगीदुचरिम-अयोगिकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय तक, चरिमंमि-चरम समय में, सत्तमओ-सातवां भंग।
गाथार्थ-(गोत्रकर्म के सात भंगों में से) आदि के पांच भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं और पहले भंग बिना शेष चार भंग सासादन गुणस्थान में होते हैं एवं उच्चगोत्र के बंध वाले दो भंग मिश्रदृष्टि से देशविरत गुणस्थान तक होते हैं।
उच्चगोत्र का बंध और उदय वाला एक भंग सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त होता है। बंध के अभाव में उपशांतमोहगुणस्थान से अयोगिकेवलीगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त छठा । भंग एवं चरम समय में सातवां भंग होता है।
विशेषार्थ-गोत्रकर्म के बंध, उदय और सत्ता की अपेक्षा सात भंग होते हैं । जिनको गुणस्थानों में घटित किया गया है
'पंचादिमा उ मिच्छे' अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में गोत्रकर्म के सात भंगों में से आदि के पाँच भंग अनेक जीवों की अपेक्षा होते हैं । वे पाँच भंग इस प्रकार हैं
१. नीचगोत्र का बंध, नीच का उदय, नीच की सत्ता। यह विकल्प उच्चगोत्र की उद्वलना करने के बाद तेज और वायुकाय के जीवों में होता है तथा तेज और वायुकाय में से निकलकर तिर्यंच के जिस भव में उत्पन्न हो वहाँ भी उच्चगोत्र न बाँधे, तब तक उक्त भंग संभव है। तेज और वायुकाय के जीव उच्चगोत्र की उद्वलना करते हैं, क्योंकि वे उसका बंध नहीं करते हैं।
२. नीच का बंध, नीच का उदय, उच्च-नीच की सत्ता, अथवा ३. नीचगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय, नीच-उच्च की सत्ता, अथवा ४. उच्चगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, उच्च-नीच की सत्ता, अथवा ५. उच्चगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय, उच्च-नीचगोत्र की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org