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________________ ४६ पंचसंग्रह : १० होने से नौ के बन्ध के दो प्रकार हैं किन्तु अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में हास्य- रति रूप एक युगल ही बँधता है । जिससे अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में होने वाला नौ का बन्ध एक ही प्रकार वाला है । हास्य- रति और भय, जुगुप्सा रूप हास्यचतुष्क अंपूर्वकरणगुणस्थान तक ही बँधता है, इसलिये अनिवृत्तिबादरसं परायगुणस्थान के प्रथम समय के प्रारम्भ में पाँच का बन्ध होता है और वह पाँच का बन्ध अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के काल के पहले पाँच भाग तक होता है, तत्पश्चात् पुरुषवेद का बन्ध नहीं होने से चार का बन्ध होता है, वह भी नौवें गुणस्थान के दूसरे पाँचवें भाग तक होता है, उसके बाद संज्वलन क्रोध का बन्ध नहीं होने से तीन का बन्ध होता है जो तीसरे पाँचवें भाग तक होता है, तदनन्तर संज्वलन मान का भी बन्ध नहीं होने से माया और लोभ इन दो का ही बन्ध होता है । इन दो का बन्ध भी पाँच भाग में के चौथे भाग तक होता है । इसके बाद संज्वलन माया का भी बन्ध नहीं होने से अनिवृत्तिबादर संप रायगुणस्थान के पाँचवें भाग में मात्र एक संज्वलन लोभ का ही बन्ध होता है और वह बन्ध भी उस गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होता है । इस प्रकार से मोहनीयकर्म के बन्धस्थान जानना चाहिये | अब इन बन्धस्थानों का कालप्रमाण बतलाते हैं । मोहकर्म के बंधस्थानों का कालप्रमाण देसूणपुव्वकोडी नव तेरे सत्तरे उ तेत्तीसा । बावीसे भंगतिगं ठितिसेसेसु मुहुत्तंत्तो ॥२२॥ शब्दार्थ - देसूणपुव्वकोडी - देशोन पूर्वकोटि, नव तेरे-नो और तेरह प्रकृतिक का, सत्तरे - सत्रह, उ- और, तेत्तीसा - तेतीस बावीसे- बाईस के, भंगतिगं—तीन भंग, ठितिसेसेसु --- शेष की स्थिति, मुहत्तंत्तो—अन्तमुहूर्त | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International ,
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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