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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २०,२१ ४५ कहना चाहिये । क्योंकि मिथ्यात्वरहित इक्कीस प्रकृति का बन्धक सासादनगुणस्थान वाला होता है और उस गुणस्थान में वर्तमान जीव पुरुष अथवा स्त्रीवेद का बन्ध करता है, किन्तु सासादनगुणस्थान में नपुसकवेद के बन्धहेतु मिथ्यात्व के उदय का अभाव होने से नपुसकवेद का बंध नहीं करता है। जिससे इक्कीस का बन्ध चार प्रकार का है । वह इस तरह कि इक्कीस के बंध को हास्य-रति युगल और शोक-अरति युगल के साथ परावर्तन करने से दो प्रकार होते हैं और इन दोनों प्रकारों को भी पुरुष और स्त्रीवेद के साथ क्रमशः परावर्तन करने से चार प्रकार हो जाते हैं। सत्रह-प्रकृतिक आदि बन्धस्थान के बन्धक तीसरे आदि गुणस्थान वाले जीव सिर्फ पुरुषवेद का ही बन्ध करते हैं। स्त्रीवेद के बन्ध में अनन्तानुबन्धि कषाय का उदय हेतु है, किन्तु तीसरे आदि गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धिकषाय का उदय न होने से स्त्रीवेद का बन्ध नहीं होता है। इक्कीस-प्रकृतिक बन्ध में से अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क के बन्ध के अभाव में सत्रह-प्रकृतिक बन्धस्थान होता है और हास्य-रति अथवा अरति-शोक युगल में से एक समय एक युगल का बन्ध होने से दो प्रकार से बनता है। उक्त सत्रह-प्रकृतिक में से दूसरी अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क के बन्ध के अभाव में तेरह प्रकृतियों का बन्ध होता है। वह स्थान भी सत्रह प्रकृतियों के बन्ध की तरह यगलद्विक के क्रमिक बन्ध के कारण दो प्रकार से बनता है। तेरह-प्रकृतिक स्थान में से प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का बन्ध न होने पर नौ का बन्धस्थान होता है। इसका बन्ध प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में होता है। प्रमत्तसंयत गुणस्थान में हास्य-रति और अरति-शोक इन दोनों युगलों का बन्ध For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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