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सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३४
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स्थान में जाने पर तो प्रत्येक उदयस्थान या प्रत्येक भंग का जघन्य - काल एक समय है और यदि एक गुणस्थान में लंबे काल तक रहे तो प्रत्येक उदयस्थान या भंग का अन्तर्मुहूर्त काल होना चाहिये ।
अब किस गुणस्थान में किस मोह प्रकृति का उदयविच्छेद होता है यह स्पष्ट करते हैं
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मोहप्रकृतियों के उदयविच्छेदक गुणस्थान
मिच्छत्तं अणमीसं चउरो चउरो कसाय वा संमं । ठाइ अपुव्वे छक्कं वेयकसाया तओ लोभं ||३४||
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शब्दार्थ - मिच्छतं - मिथ्यात्व, अणमीसं - अनन्तानुबंधि, मिश्र मोहनीय, चउरो - चउरो — चार-चार, कसाय - कषाय, वा- ओर, संमं - सम्यक्त्वमोहनीय, ठाइ―― रहते हैं, होते हैं, अपूव्वे - अपूर्वकरण गुणस्थान, छक्कं—- हास्यादि षट्क, वेयकसाया --- वेद और कषाय, तओ - तत्पश्चात्, लोभं संज्वलन लोभ ।
गाथार्थ - मिथ्यात्व अनन्तानुबंधि, मिश्रमोहनीय और चारचार कषाय अनुक्रम से पहले से पांचवें गुणस्थान तक होते हैं । चौथे से सातवें तक सम्यक्त्वमोहनीय विकल्प से रहती है । हास्यादिषट्क अपूर्वकरणगुणस्थान तक तथा वेद और संज्वलनकषायत्रिक नौवें तक और लोभ दसवें गुणस्थान तक रहते हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उदय होने के गुणस्थानों का संकेत किया है। अनुक्रम से जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
मिथ्यात्वमोहनीय का उदय पहले मिथ्यात्वगुणस्थान तक रहता है अर्थात् मिथ्यात्वमोहनीय का उदयविच्छेद पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में होता है । तत्पश्चात् अन्य किसी गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं रहता है ।
इसी प्रकार अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क का उदयविच्छेद सासादन गुणस्थान में, मिश्रमोहनीय का मिश्रगुणस्थान में, अप्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क का अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में और
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