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पंचसंग्रह : १०
अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक ये तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान क्षायिक और औपशमिक मनुष्य के ही होता है, क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के नहीं होता है। जिससे क्षायिक सम्यग्दृष्टि को अपने प्रत्येक उदयस्थान में इक्कीस का एक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि को अपने प्रत्येक उदयस्थान में अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं तथा दोनों सम्यग्दृष्टियों के चार, पाँच और छह प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं । तथापंचाइबंध गेसु इगट्ठच उवी सम्बंधगेगं च । तेरस बारेक्कारस य होंति पणबंधि खवगस्स ॥४३॥ एगाहियाय बंधा चउबंधगमाइयाण संतंसा । बंधोदयाण विरमे जं संतं छुभइ अण्णत्थ ॥ ४४ ॥ शब्दार्थ - पंचाइबंधगेसु — पांच आदि के बंधक को, इगट्ठचवीसइक्कीस, अट्ठाईस, चौबीस प्रकृतिक, अबंधगेगं - अबंधक के एक, च-ओर, तेरस बारेक्कारस- तेरह, बारह, ग्यारह, य - और, होंति — होते हैं, पणबंधिपाँच के बंधक, खवगस्स - क्षपक के ।
एगाहियाय - एक प्रकृतिक से अधिक, बंधा - बंध की अपेक्षा, चउबंधगमाइयाण -- चार आदि प्रकृति के बंधक के, संतंसा - सत्तास्थान, बंधोदाण विरमे- - बंध और उदय के रुकने के बाद, जं- जो, संतं - सत्तागत, छ्भइसंक्रमित होता है, अण्णत्थ - अन्यत्र |
गाथार्थ - पाँच आदि प्रकृति के बंधक के इक्कीस, अट्ठाईस एवं चोबीस ये तीन और अबंधक के एक तथा चकार से इक्कीस, अट्ठाईस और चौबीस ये तीन कुल चार सत्तास्थान होते हैं । पाँच के बंधक क्षपक के तेरह, बारह और ग्यारह प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान तथा चार आदि प्रकृति के बंधक के बंध की अपेक्षा एक प्रकृति से अधिक सत्तास्थान होता है। क्योंकि बंध और उदय के रुकने के बाद सत्तागत कर्म अन्यत्र संक्रमित होता है । विशेषार्थ- पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति के बंधक को अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में और अबंधक को सूक्ष्म संपराय एवं
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