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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४५,४६ ६३ अजघन्योत्कृष्ट अवस्थान काल पल्योपम के असंख्यातवें भाग है । वह इस प्रकार - अट्ठाईस की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्वमोहनीय की उवलना करे तब सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान प्राप्त होता है । तत्पश्चात् इसी सत्ताईस की सत्ता वाले के मिश्रमोहनीय की उवलना प्रारंभ करने के पहले मिश्रमोहनीय का उदय भी होता है और उस मिश्रमोहनीय का उदय अन्तमुहूर्त तक ही होता है । इस तरह मिश्रदृष्टि को भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । यह सत्ताईस की सत्तावाला मिश्रदृष्टि अन्तर्मुहूर्त के बाद अवश्य मिथ्यात्व को प्राप्त करता है और मिथ्यात्व में जाकर मिश्रमोहनीय की उवलना करना प्रारम्भ करता है और पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने काल में पूर्णरूप से उसकी उवलना कर देता है। जब तक पूरी तरह से उवलना न कर दी हो तब तक उसकी सत्ता होती है । जिससे सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान का अजघन्योत्कृष्ट काल पल्योपम के असंख्यातवें जितना होता है । मिश्रमोहनीय की उवलना हो जाने के बाद छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धं पुद्गल परावर्तन प्रमाण है— 'पोग्गलद्ध छव्वीसे ।' अधिक-से-अधिक उतना काल व्यतीत होने के बाद तीन करण करके अवश्य औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है और जिससे पुनः अट्ठाईस की सत्ता वाला होता है और छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । क्योंकि मिश्रमोहनीय की उवलना करके छब्बीस की सत्ता वाला होकर अन्तर्मुहूर्त के बाद ही तीन करण करके उपशमसम्यक्त्व कर अट्ठाईस की सत्ता वाला हो सकता है । तथा प्राप्त अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट अवस्थान काल कुछ अधिक दो छियासठ सागरोपम है । वह इस प्रकार जानना चाहियेक्षायोपशमिक सम्यक्त्व का छियासठ सागरोपम काल है । जिससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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