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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २८ शब्दार्थ-बारस-बारह, चउरो ति दु एक्क गाउ-चार, तीन, दो, और एक, पंचाइबंधगे-पाँच आदि के बंधस्थान में, उदया-उदय, अब्बंधगेअबंधक को, वि-भी, एकको-एक, तेसीया-तेरासी, नवसया-नौ सौ, एवं--इस प्रकार। गाथार्थ-पाँच आदि के बंधस्थानों में अनुक्रम से बारह, चार, तीन, दो और एक उदयभंग होते हैं । अबंधक के भी एक भंग होता है । कुल नौ सौ तेरासी भंग होते हैं । विशेषार्थ-पाँच आदि बंधस्थानों में अनुक्रम से बारह, चार, तीन, दो और एक, इस प्रकार उदयविकल्प होते हैं । जो इस प्रकार हैं-- नौवें गुणस्थान में पाँच के बंधकाल में संज्वलन क्रोधादि चार में से कोई एक क्रोधादि और तीन वेद में से कोई एक वेद इस प्रकार दो प्रकृतियों का उदय होता है । अतः चार को तीन से गुणा करने पर बारह भंग होते हैं। चार का जब बंध होता है तब उदय एक प्रकृति का होता है। पुरुषवेद का जब बंधविच्छेद होता है तब चार का बंध होता है तथा पुरुषवेद का बंध एवं उदय दोनों एक साथ होते हैं इसलिये चार के बंधकाल में एक का उदय होता है और वह भी संज्वलनकषायचतुष्क में से किसी एक का । वेद या युगल किसी का उदय नहीं होने से चार ही भंग होते हैं। यहाँ चार भंग होने का कारण यह है कि कोई संज्वलन क्रोध के उदय में श्रेणि प्रारम्भ करता है, कोई मान के उदय में, कोई माया के उदय में अथवा कोई संज्वलन लोभ के उदय में श्रेणि आरम्भ करता है। जिससे चार ही भंग होते हैं । . संज्वलन क्रोध का बंधविच्छेद होने पर तीन का बंध होता है। यहाँ भी उदय एक का ही होता है। क्योंकि क्रोध का बंध और उदय साथ होता है । तीन के उदय के तीन भंग होते हैं । इसी प्रकार संज्वलन मान का बंधविच्छेद होने पर दो का बंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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