SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ पंचसंग्रह : १० चार, एक्का — एक, य-और, नवसयाई- - नौ सौ सट्ठाई - साठ, एवमुदयाणं - इस प्रकार उदय के (विकल्प) । गाथार्थ — दस - प्रकृतिक आदि उदयस्थानों में अनुक्रम से एक, छह, ग्यारह, दस, सात, चार और एक चौबीसियाँ होती हैं और जिनके कुल मिलाकर नौ सौ साठ भंग होते हैं । , विशेषार्थ - दस के उदय से लेकर चार के उदय पर्यन्त प्रत्येक उदयस्थान में भंगों की चौबीसियाँ अनुक्रम से एक, छह, ग्यारह, दस, सात, चार और एक होती हैं। इनमें से दस के उदय में एक चौबीसी मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में होती है। नौ के उदय में छह चौबीसी होती हैं । उनमें तीन चौबीसी मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में तथा सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में एक - एक होती हैं । आठ के उदय में ग्यारह चौबीसी होती हैं । इनमें से तीन मिथ्यात्वगुणस्थान में, दो सासादन गुणस्थान में दो मिश्र में तीन अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में और एक देशविरतगुणस्थान में होती है । सात के उदय में दस चौबीसी होती हैं । जिनमें से मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और प्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में एक-एक, अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थान में तीन-तीन चौबीसी होती हैं। छह के उदय में सात चौबीसी होती हैं । उनमें से अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में एक, देशविरत और प्रमत्त गुणस्थान में तीन-तीन होती हैं । पाँच के उदय में चार चौबीसी होती हैं । उनमें से देशविरत में एक और प्रमत्तसंयतगुणस्थान में तीन होती हैं । चार के उदय में एक चौबीसी होती है और वह प्रमत्तसंयतगुणस्थान में होती है । इस प्रकार सब मिलाकर भंगों की चालीस चौबीसियाँ होती हैं । जिनको चालीस से गुणा करने पर कुल उदयविकल्प भंग नौ सौ साठ होते हैं । अब पाँच आदि बंधस्थानों के उदयविकल्पों का कथन करते हैं । बारस चउरो ति दु एक्कगाउ पंचाइबंधगे उदया । अब्बंधगे वि एक्को तेसीया नवसया एवं ॥ २८ ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy