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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४३,४४ तब चार प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। इस तरह स्त्रीवेद और नपुसकवेद से क्षपकणि स्वीकार करने वाले के पांच प्रकृति का समूह रूप सत्तास्थान सम्भव नहीं है। जो पुरुषवेद से क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होता है, उसे जिस समय छह नोकषाय का क्षय होता है, उसी समय पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है । जिससे उसे चार के बंधकाल में ग्यारह प्रकृति का समूह रूप सत्तास्थान नहीं होता है परन्तु पाँच प्रकृति का समूह रूप सत्तास्थान होता है। जिससे क्षपकवेणि में चार के बंध और एक के उदय में चार, पांच और ग्यारह प्रकृति के समूहरूप तीन सत्तास्थान और उपशमश्रेणि की अपेक्षा अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक इस तरह तीन सत्तास्थान होते हैं तथा सब मिलाकर चार के बंध, एक के उदय में छह सत्तास्थान होते हैं। तथा___ संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थिति आवलिका मात्र बाकी रहे तब उसके बंध, उदय और उदीरणा का एक साथ विच्छेद होता है। क्रोध का बंधादि विच्छेद होने के बाद मान, माया और लोभ, इन तीन का बंध होता है। बंधविच्छेद के प्रथम समय में संज्वलन क्रोध का आवलिका मात्र प्रथम स्थिति सम्बन्धी और दो समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ दलिक सत्ता में होता है। उसके सिवाय अन्य दल का क्षय हुआ होने से सत्ता में नहीं रहता है। __ वह सत्तागत दल भी दो समयन्यून दो आवलिका काल में क्षय होता है। जब तक उसका क्षय हुआ होता नहीं है तब तक तीन के बंध और एक के उदय में चार प्रकृति की सत्ता होती है और क्षय होने के बाद तीन प्रकृति को सत्ता होती है। इस प्रकार क्षपकश्रेणि की अपेक्षा दो सत्तास्थान और उपशमश्रेणि की अपेक्षा पूर्वोक्त तीन, सब मिलाकर तीन के बंध और एक के उदय में पांच सत्तास्थान होते हैं। तथा-- . संज्वलन मान की प्रथम स्थिति आवलिका मात्र शेष रहे तब उसके बंध, उदय और उदीरणा का युगपत् विच्छेद होता है । बंधादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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