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________________ ३३६ पच संग्रह : १० न्द्रियादि चार जाति, स्थावर और आतप ये उन्नीस प्रकृतियाँ नहीं बंधती हैं तथा मिथ्यादृष्टि नारक तीर्थंकर नामकर्म का बंध नहीं करते हैं। क्योंकि इसके बंध में सम्यक्त्व निमित्त है। जिससे बीस प्रकृति कम करने पर शेष सौ प्रकृतियाँ ही मिथ्यादृष्टि नारक के बँधती हैं। सासादनगुणस्थान में वर्तमान नारक छियानवै प्रकृतियों का बंध करते हैं। क्योंकि उनके मिथ्यात्वमोहनीय, नपुसकवेद, हुण्डसंस्थान और सेवार्त संहनन इन चार प्रकृतियों का गुणप्रत्यय से ही बंध नहीं होता है। मिश्रदृष्टि नारक सत्तर प्रकृतियों का बंध करते हैं। क्योंकि मिश्रदृष्टि स्त्याद्धित्रिक, दुःस्वर, दुर्भग, अनादेय, तियंचत्रिक, मध्यम संहननचतुष्क, मध्यम संस्थानचतुष्क, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, उद्योत, नीचगोत्र और मनुष्यायु इस प्रकार छब्बीस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि नारक बहत्तर प्रकृति बाँधते हैं। क्योंकि वे मनुष्यायु और तीर्थंकरनाम का बंध करते हैं। किन्तु चौथी से छठी नरकपृथ्वी तक के नारक तीर्थंकरनाम का बंध नहीं करने वाले होने से इकहत्तर प्रकृतियों का बंध करते हैं। उनके पहले, दूसरे और तीसरे गणस्थान के बंध में कुछ भी अन्तर नहीं है । तथाप्रकार के भवस्वभाव से चौथी आदि पृथ्वी वाले नारक तीर्थकरनाम का बंध करते ही नहीं हैं । तथा-- सातवीं नरकपृथ्वी में भवप्रत्यय से ही मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र बंधयोग्य नहीं, जिससे सातवीं नरकपृथ्वी में मिथ्यादृष्टि और सासादनगुणस्थान में इन तीन प्रकृति से न्यून प्रकृतियाँ बंधयोग्य समझना चाहिये । जिससे पूर्व में पहले और दूसरे गुणस्थान में नारकों को जो बंध कहा है, उससे इन तीन प्रकृतियों से न्यून बंध सातवीं नरक पृथ्वी में जानना चाहिये। परन्तु तीसरे और चौथे गुणस्थान में गुणप्रत्यय से मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र का बंध होता है जिससे इन दोनों गुणस्थान में सातवीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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