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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४६, १४७
नरकगति में बंधयोग्य प्रकृति
मिच्छे नरएस सयं छण्णउई सासगो सयरि मीसो । बावर्त्तारं तु सम्मो चउराइसु बंधति मणुयदुगुच्चागोयं भवपच्चइयं न होइ गुणपच्चइयं तु बज्झइ मणुयाऊ ण सव्वहा तत्थ ॥ १४७॥ शब्दार्थ - मिच्छे – मिथ्यात्व गुणस्थान में, नरएसुनारकों में, सयंसो, छण्णउई - छियानवे, सासणी - सासादन, सयरि-सत्तर, मोसो – मिश्र गुणस्थान, बावर्त्तारं - बहत्तर, तु-और, सम्मो— अविरतसम्यग्दृष्टि में, चउराइसु- चौथी आदि पृथ्वियों में, बंधति अतित्था - तीर्थंकरनाम के बिना ( इकहत्तर) बंधती हैं ।
इयं - गुणप्रत्यय से, तु — और, बज्झइ – बंधती है, नहीं, सव्वहा - सर्वथा, तत्थ - वहाँ ।
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मणुयदुगुच्चागोयं - मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र, भवपच्चइयं - भवप्रत्यय से ही न होइ नहीं बंधते हैं, चरिमाए— अन्तिम नरक- पृथ्वी में, गुणपच्च
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मणुवाऊ - मनुष्यायु ण
अतित्था ।।१४६।। चरिमाए ।
गाथार्थ - नरकगति में वर्तमान मिथ्यादृष्टि नारक सौ, सासासन छियानवे, मिश्रगुणस्थान वाला सत्तर और अविरत सभ्यग्दृष्टि बहत्तर प्रकृतियों का बंध करता है और चौथी आदि पृथ्वियों में तीर्थंकरनाम के बिना इकहत्तर प्रकृति बँधती हैं ।
अन्तिम नरक पृथ्वी (सातवीं नरक) में मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र भवप्रत्यय से ही नहीं बँधते हैं गुणप्रत्यय से तो बँधते हैं । मनुष्यायु का तो सर्वथा बंध होता ही नहीं है ।
विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में गुणस्थानापेक्षा नरकगति में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या बताई है । नरकगति में आदि के चार गुणस्थान होते हैं । जिनमें यथाक्रम से बंध प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है
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नरकगति में वर्तमान मिथ्यादृष्टि सौ प्रकृतियों का बंध करता है । इसका कारण यह है कि नारक के भवप्रत्यय से ही वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, देवत्रिक, नरकत्रिक, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, एके
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