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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७,१८
इस प्रकार से गोत्रकर्म के संवेध भंगों को जानना चाहिये । अब वेदनीयकर्म के संवेध का निरूपण करते हैं। वेदनीय कर्म का संवेध
तेरसमछट्ठएसु सायासायाण बंधवोच्छेओ। संत उइण्णाइ पुणो सायासायाई सन्वेसु ॥१७॥ बंधई उइण्णयं चिर इयरं वा दोवि संत चउ भंगा।
संतमुइण्णमबंधे दो दोणि दुसंत इइ अट्ठ ॥१८॥ शब्दार्थ-तेरसमछट्ठएसु---तेरहवें और छठे गुणस्थान में, सायासायाण -साता और असाता का, बंधवोच्छेओ-बंधविच्छेद, संतउइण्णाइ-सत्ता और उदय में, पुणो-पुनः, सायासायाई-साता और असाता, सव्वेसु-सभी गुणस्थानों में।
बंधइ-बांधे, उइण्णयं-उदयप्राप्त को, चिर-इसी प्रकार, इयरंइतर को, वा-अथवा, दोवि—दोनों ही, संत-सता, चउ भंगा-चार भंग, संतमुइण्णमबंधे-बंधाभाव में, सत्ता और उदय में, दो-दो, दोणि-दो, दुसंत—दोनों की सत्ता, इइ-इस प्रकार, अट्ठ-आठ ।
गाथार्थ-अनुक्रम से छठे और तेरहवें गुणस्थान में असाता और साता का बंधविच्छेद होता है । सत्ता और उदय में साताअसाता वेदनीय कर्म सभी गुणस्थानों में होता है।
उदयप्राप्त अथवा इतर-उदय-अप्राप्त का बंध हो और सत्ता में दोनों हों तो उसके चार भंग होते हैं । बंध के अभाव में (अयोगि के चरम समय में) सत्ता और उदय में (एक हो), उसके दो और (उदय में एक और सत्ता में दोनों हों) उसके दो, इस प्रकार कुल आठ भंग होते हैं ।
विशेषार्थ-वेदनीयकर्म के संवेध भंग बताने के संदर्भ में पहली गाथा में गुणस्थानापेक्षा स्वामित्व का और दूसरी गाथा में संभव विकल्पों का निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
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