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पंचसंग्रह : १०
आवलिका जाने के बाद उदय में आते हैं । जिस समय अनन्तानुबंधि का बंध हो, उसी समय से अप्रत्याख्यानावरणादि के दलिक संक्रमित होते हैं । यानि बंध समय से एक आवलिका जाने के बाद अथवा संक्रम समय से एक आवलिका जाने के बाद बंधावलिका और संक्रमावलिका के एक ही हो जाने से मिथ्यात्व गुणस्थान की एक आवलिका बीतने पर संक्रात दलिकों का - अनन्तानुबंधि रूप हुए दलिकों का उदय होता है और वद्ध अनन्तानुबंधि का भी बंध समय से एक आवलिका जाने के बाद उदीरणाकरण के द्वारा उदय हो सकता है । इसीलिये कहा है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में मात्र एक आवलिका काल ही अनन्तानुबंधि का उदय नहीं होता है । वह भी जिसने सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थान में अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करके गिरकर मिथ्यात्व में आया हो उसी के संभव है । जिस जीव ने अनन्तानुबंधि की विसंयोजना की हो उसे तो उसके सत्ता में होने से जिस समय गिरकर मिथ्यात्व में आता है, उसी समय से ही उदय में आती है ।
अब नौ प्रकृतिक उदयस्थान का निर्देश करते हैं- पूर्वोक्त सातप्रकृतिक उदयस्थान में भय जुगुप्सा अथवा भय अनन्तानुबंधि अथवा जुगुप्सा - अनन्तानुबंध का उदय बढ़ाने पर नौ- प्रकृतिक उदयस्थान होता है । उसके प्रत्येक विकल्प में पूर्वोक्त क्रमानुसार एक-एक चौबीस चौबीस भंग होते हैं। जिससे तीन चौबीसी होती हैं ।
दस - प्रकृतिक उदयस्थान के लिये पूर्वोक्त सात के उदय में भय, जुगुप्सा और अनन्तानुबंधि के उदय का युगपत् प्रक्षेप करने से दस प्रकृति का उदयस्थान होता है । यहाँ भंगों की एक ही चौबीसी होती है ।
इस प्रकार मिथ्यादृष्टिगुणस्थान के चारों उदयस्थानों की कुल मिलाकर आठ चौवीसी (१६२= एक सौ बानवे भंग) होती हैं ।
यह भंग - विकल्प भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा घटित होते हैं । क्योंकि एक को सात का उदय किसी एक प्रकार से और दूसरे को दूसरे
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