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________________ १८२ पंचसंग्रह : १० ___ कदाचित यह कहा जाये कि ऊपर जो सत्तास्थान कहे हैं उनका जोड़ करने पर तेरह सत्तास्थान इस प्रकार होते हैं-प्रथम सत्तास्थानचतुष्क, द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क, अध्र वसंज्ञावालात्रिक और आठ, नौ प्रकृतिक । इनका कुल जोड़े तेरह होता है तो फिर बारह सत्तास्थान कैसे हुए ? तो इसका उत्तर यह है कि अस्सी प्रकृतिक सत्तास्थान दो प्रकार से होता है एक तो तेरानव में से नामकर्म की तेरह प्रकृतियां क्षय होने पर होता है और दूसरा अठासी प्रकृतियों में से देवद्विक, नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क की उद्वलना होने पर। परन्तु संख्या तुल्य होने से एक की ही विवक्षा की है । इसीलिये नामकर्म के बारह सत्तास्थान कहे हैं। इस प्रकार से सप्ततिका के अभिप्रायानुसार नामकर्म के बारह सत्तास्थान जानना चाहिये । किन्तु कर्मप्रकृति आदि के अभिप्रायानुसार इसी प्रकार से एक सौ तीन आदि समझना चाहिये। वे इस प्रकार हैं-कर्मप्रकृतिकारादि बन्धन पन्द्रह मानते हैं। जिससे एक सौ तीन प्रकृतियों का पिंड पहला सत्तास्थान, उसमें से तीर्थंकरनाम को कम करने पर एक सौ दो प्रकृति प्रमाण दूसरा सत्तास्थान, एक सौ तीन में से आहारकसप्तक को कम करने पर छियनावै प्रकृति प्रमाण तीसरा सत्तास्थान और एक सौ तीन में से तीर्थकरनाम एवं आहारक सप्तक को न्यून करने पर पंचानवै प्रकृति प्रमाण चौथा सत्तास्थान होता है। इन चार सत्तास्थानों को प्रथम सत्तास्थानचतुष्क के नाम से कहा जाता है। इस प्रथम सत्तास्थानचतुष्क में से तेरह प्रकृतियों का क्षय होने के बाद नव्वै, नवासी, तिरासी, और बयासी प्रकृति रूप चार सत्तास्थान होते हैं । इनकी द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क यह संज्ञा है । प्रथम सत्तास्थानचतुष्क के चौथे पंचानवै प्रकृति रूप सत्तास्थान में से देवद्विक (अथवा नरकद्विक की उद्वलना करे तब तेरानवै प्रकृतिक, उसमें से देवद्विक अथवा नरकद्विक जो अनुद्वलित हो उसकी तथा वैक्रियसप्तक की उद्वलना हो तब चौरासी और उसमें से मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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