SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २६१ तीर्थंकरनाम युक्त देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक संयत को उपर्युक्त पांचों उदयस्थानों में तेरानवें और नवासी प्रकृतिक इस प्रकार दो-दो सत्तास्थान होते हैं । मात्र आहारकसंयत को तेरानव प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है । क्योंकि उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान तीर्थंकरनाम युक्त होने से उसकी सत्ता भी अवश्य होती है । वैक्रिय संयत और स्वभावस्थ संयत को दोनों सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार प्रमत्तसंयत को अपने समस्त उदयस्थानों में सामान्य से चार-चार सत्तास्थान संभव हैं । जिससे कुल मिलाकर बीस सत्तास्थान होते हैं । इस तरह से प्रमत्तसंयत गुणस्थान के बंध, उदय और सत्तास्थान एवं उनके संवेध का विवेचन जानना चाहिये । सुगमता से बोध करने के लिये प्रारूप इस प्रकार है प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि के संवेध का प्रारूप बंधस्थान २८ प्र. २६ प्र. योग २ उदयस्थान Jain Education International २५ प्र. २७ " २८ " २६ " ३० " २६ प्र. २७ " २८ " २६ " ३० १० " सत्तास्थान २,८८ प्र. ६२,८८ ६२, ८ ६२, ८८ " २० " २, ८८ 17 ६३, ८६ प्र. For Private & Personal Use Only 37 ३,८६ ६३, ८६ ६३, ८६ ६३, ८६, " " " www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy