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________________ पंचसंग्रह : १० अप्रमत्तसंयत गुणस्थान -- अब क्रमप्राप्त अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के बंध, उदय, सत्तास्थानों और उनके संवेध का प्रतिपादन करते हैं । २६२ इस गुणस्थान में अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इस तरह चार बंधस्थान होते हैं । उनमें से आदि के दो प्रमत्तसंयत गुणस्थान की तरह समझना चाहिये । आहारकद्विकयुक्त देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करने पर तीस का तथा तीर्थकरनाम और आहारकद्विक इन तीनों का एक साथ बंध करने पर इकत्तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है | यहाँ प्रत्येक बंधस्थान का एक-एक भंग ही होता है । क्योंकि इस गुणस्थान में अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति का बंध नहीं होता है । इस गुणस्थान में उनतीस और तीस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं । उनमें जो कोई प्रमत्तसंयत आहारक या वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा करके उसकी समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त हो इस गुणस्थान में आये, उसे उनतीस प्रकृतियों का उदयस्थान होता है । इस उदयस्थान के वैक्रिय सम्बन्धी एक और आहारक सम्बन्धी एक इस प्रकार कुल दो भंग होते हैं | उद्योत का उदय होने के बाद तीस प्रकृतिक उदयस्थान भी यहाँ होता है । इसके पूर्व की तरह दो भंग होते हैं । इस प्रकार वैक्रियसंयत के दो और आहारकसंयत के दो, कुल चार भंग होते हैं । स्वभावस्थ अप्रमत्तसंयत को भी तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है और उसके एक सौ चवालीस भंग होते हैं । वे भग प्रमत्तसंयत गुणस्थान में बताये गये अनुसार जानना चाहिये । इस गुणस्थान में भी पूर्व में कहे गये अनुसार तिरानवें, बानवं, नवासी, अठासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । अब इनके संवेध का निर्देश करते हैं इस गुणस्थान में अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को दोनों उदयस्थानों में अठासी प्रकृतिक, उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के दोनों उदयस्थानों में नवासी प्रकृतिक, तीस प्रकृतियों को बांधने वाले को दोनों उदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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