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________________ २६६ पंचसंग्रह : १० यहां बंध, उदय और सत्तास्थानों के भेद का अभाव होने से संवेध नहीं होता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान - इस गुणस्थान में भी यशः कीर्ति का बंध रूप एक बंधस्थान, तीस प्रकृति का उदय रूप एक उदयस्थान होता है और सत्तास्थान नौवें गुणस्थान की तरह आठ होते हैं । उनमें से तेरानवै, बानवै, नवासी, अठासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान उपशम श्रेणि में और अस्सी, उन्यासी, छियहत्तर, पचहत्तर प्रकृतिक ये चार क्षपक श्रेणि में होते हैं तथा तीस प्रकृतिक उदयस्थान के चौबीस और बहत्तर भंग आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में जिस प्रकार बताये हैं, उसी प्रकार से नौवें और दसवें गुणस्थान में भी जानना चाहिये । यहां भी संवेध संभव नहीं है । इस प्रकार से पहले से लेकर दसवें गुणस्थान तक नामकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों एवं उनके संवेध के बारे में जानना चाहिये । ग्यारहवें आदि आगे के गुणस्थानों में नामकर्म की प्रकृतियों का बंध तो नहीं होता है । किन्तु उदय और सत्ता होती है । अतएव ग्यारहवें से लेकर चौदहवे गुणस्थान तक के उदय और सत्तास्थानों का निरूपण करते हैं । उपशान्तमोहगुणस्थान- इस गुणस्थान में तीस प्रकृतियों का उदय रूप एक ही उदयस्थान होता है। उसके चौबीस अथवा बहत्तर भंग आठवें गुणस्थान की तरह समझना चाहिये तथा सत्तास्थान तेरानवै, नवासी, बानवे और अठासी प्रकृतिक ये चार हैं। क्षीणमोह गुणस्थान – इस गुणस्थान में तीस प्रकृतिक एक ही उदयस्थान होता है । यह गुणस्थान क्षपकश्रेणि द्वारा प्राप्त होता है और क्षपक श्रेणि प्रथम संहनन से ही प्राप्त होती है, जिससे भंग चौबीस ही होते हैं । उसमें भी क्षीणमोहगुणस्थान में वर्तमान तीर्थकरनाम की सत्तावालों के प्रथम संस्थान आदि शुभ प्रकृतियों का ही उदय होने से एक ही भंग होता है तथा अस्सी, उन्यासी, छियत्तर और पचहत्तर प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । इनमें से उन्यासी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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