________________
५२
पंचसंग्रह : १०
अणसम्मभयदुगंछाण णोदओ संभवेवि वा जम्हा । उदया चवीसा aिय एक्केक्कगुणे अओ बहूहा ॥२५॥
शब्दार्थ --- अणसम्मभयदुगंछाण -- अनन्तानुबंधी, सम्यक्त्वमोहनीय, भय, जुगुप्सा का, गोदओ - उदय नहीं होता, संभवेवि - संभव भी है, वा- अथवा, जम्हा - जिससे, उदया - उदय, चउवीसा - चौबीसी, विय- भी और, एक्कगुणे - एक एक गुणस्थान में, अओ-अत, बहहा - अनेक प्रकार से ।
गाथार्थ - अनन्तानुबंधि, सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा का उदय नहीं होता है और संभव भी है, जिससे उदय और चौबीसयाँ एक-एक गुणस्थान में अनेक प्रकार से होती हैं ।
विशेषार्थ - अनन्तानुबंधिकषाय, सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा मोहनी का किसी समय उदय होता है और किसी समय नहीं भी होता है । वह इस प्रकार समझना चाहिये
क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने के पूर्व अनन्तानुबंधिकषाय की उदवलना करके पारिणामिक हीनता आने पर मिथ्यात्व को प्राप्त हुए मिथ्यादृष्टि को मिथ्यात्व रूप हेतु से बंधे उस अनन्तानुबंधिकषाय का एक आवलिका पर्यन्त उदय नहीं होता है, शेषकाल में उदय होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में वर्तमान औपशमिक अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वमोहनीय का उदय नहीं होता है । शेष के - क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के होता है । भय और जुगुप्सा अध्र,वोदया प्रकृति होने से मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण पर्यन्त सभी गुणस्थानों में किसी समय उनका उदय होता है और किसी समय नहीं होता है ।
इसी कारण एक-एक गुणस्थान में उदय और उस उदय से संभव भंग - चौबीसियों के अनेक प्रकार हो जाते हैं । यह अनेक प्रकार से होने वाले उदयस्थान और भंग - चौबीसियाँ गुणस्थानों में इस प्रकार जानना चाहिये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org