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सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६, ६०
स्थान का विचार करना हो, उस-उस के योग्य जो-जो प्रकृतियां हों उनको मिलाकर अन्य प्रकृतियों को कम करना चाहिये ।
इस प्रकार से व्यत्यास करने की पद्धति का संकेत करने के बाद अब पर्याप्त एकेन्द्रियप्रायोग्य बंधस्थानों को बतलाते हैं
पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंधस्थान का विचार करने पर अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंधस्थान में जो प्रकृतियां कही हैं उनमें से अपर्याप्तनाम को कम करके पर्याप्तनाम का प्रक्षेप करना चाहिये और शेष प्रकृतियां वही रखना चाहिये । इस प्रकार से संभव तेईस प्रकृतिक स्थान को पराघात और उच्छ्वास सहित करने पर पच्चीस प्रकृतियां होती हैं । ये पच्चीस प्रकृतियां पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करते मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच और ईशान स्वर्ग तक के देवों को बंधयोग्य जानना चाहिये । ये पच्चीस प्रकृतियां इस प्रकार हैं
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पूर्व में चक्ररचना के लिये कही गई गाथा ५२ से ५४ में संभावना की अपेक्षा आतप के साथ बत्तीस प्रकृतियां पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य कही हैं । उनमें आतप और उद्योत तो पच्चीस प्रकृतियों के बंध में संभवित नहीं है, उच्छ्वास और पराघात इन दो प्रकृतियों को ग्रन्थकार ने स्वयं ग्रहण किया है और स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ, यश:कीर्ति - अयश: कीर्ति, प्रत्येक - साधारण तथा सूक्ष्म- बादर ये परस्पर विरुद्ध प्रकृतियां हैं । जिससे इन दस में से यथायोग्य पाँच प्रकृतियां ही एक साथ बंधने वाली होने से उनको परावर्तन के साथ ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार करने पर पच्चीस प्रकृतियां बंधयोग्य होती हैं और वे इस प्रकार हैं
तिर्यंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस, कार्मण ये तीन शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, स्थावर, बादर-सूक्ष्म में से एक, पर्याप्त, प्रत्येकसाधारण में से एक, स्थिर अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति में से एक, दुभंग, अनादेय और निर्माण |
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