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पंचसंग्रह : १० बानवे, अठासी, छियासी, अस्सी और अठहत्तर प्रकृतिक । इक्कीस, चौबीस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों के उदय में पाँचों सत्तास्थान होते हैं। यहाँ यह जानना चाहिये कि पच्चीस प्रकृतिक उदस्थान में अठहत्तर प्रकृतिक सत्वस्थान तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के ही होता है तथा छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के भी होता है और जो तेज व वायुकाय के जीव मरकर विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, कुछ काल तक उनके भी होता है। ___ सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इन प्रत्येक उदयस्थानों में अठहत्तर प्रकृतिक के सिवाय शेष चार-चार सत्तास्थान होते हैं।
कुल मिलाकर तेईस प्रकृतिक स्थान के बंधक के नौ उदयस्थान संबन्धी चालीस सत्तास्थान होते हैं।
इसी प्रकार पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों के बंधक के लिये भी समझना चाहिये। मात्र यहाँ अपने समस्त उदयस्थानों में वर्तमान देव भी पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों का बंध करते हैं तथा वे मात्र बादर-पर्याप्त पृथ्वी, अप् और प्रत्येक वनस्पति योग्य ही प्रकृतियों का बंध करने वाले होने से स्थिरअस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीति-अयशःकीति का परावर्तन करने से होने वाले आठ भंगों से पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों का बंध करते हैं ।
देव सूक्ष्म, साधारण या अपर्याप्त नामकर्म के उदय वाले किसी भी जीवस्थान में उत्पन्न नहीं होते हैं । अतएव उनके योग से होने वाले कोई भी भंग देवों में नहीं होते हैं।
पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक बंधस्थानों के सत्तास्थानों का विचार तेईस प्रकृतिक बंधस्थान जैसा करना चाहिये। जिससे पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक इन दो बंधस्थानों में चालीस-चालीस सत्तास्थान
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