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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६
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होते हैं, किन्तु इतना विशेष है कि यहां देवों के अपने सभी उदयस्थानों में बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान ही होते हैं, अन्य कोई सत्तास्थान नहीं होते हैं ।
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अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक मिथ्यादृष्टि को तीस और इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान देव या नरक गति योग्य है और उसे पर्याप्त मिथ्यादृष्टि ही बांधते हैं । इसीलिये उक्त दो उदयस्थान ग्रहण किये हैं । उनमें से तीस प्रकृतिक उदयस्थान मनुष्य और तिर्यच दोनों को होता है और इकत्तीस प्रकृति रूप उदयस्थान मात्र तिर्यंचों को ही होता है ।
अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को बानवे, नवासी, अठासी, छियासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । उनमें देव या नरक गति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते तिर्यंच को तीस और इकत्तीस प्रकृति रूप उदयस्थान में बानवै, अठासी और छियासी प्रकृतिक ये तीनतीन सत्तास्थान होते हैं ।
मनुष्य को देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर उपर्युक्त तीन सत्तास्थान होते हैं और नरकगतियोग्य बंध करते मनुष्य को बानवं, नवासी, अठासी, छियासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान संभव हैं । उनमें बानवै और अठासी प्रकृतिक तो सामान्यतः होता है । अस्सी प्रकृतियों की सत्ता लेकर कोई एकेन्द्रिय जीव मनुष्य में उत्पन्न हो, वहां देवद्विक और वैक्रियचतुष्क अथवा नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क बांधे तब छियासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । तथा
१. यहां दो उदयस्थान बताये हैं । इससे प्रतीत होता है कि उत्तर वैक्रिय शरीरी की विवक्षा नहीं की है । अन्यथा इसी अधिकार की गाथा ९६ में अट्ठाईस प्रकृतियों के बंध में पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतियों के उदय में वैक्रिय शरीरी मिथ्यादृष्टि मनुष्यों और तिर्यंचों का भी ग्रहण किया है । अतः उस अपेक्षा यहां पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतिक आदि पांच इस तरह छह उदयस्थान भी हो सकते हैं ।
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