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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २६३ होते हैं, किन्तु इतना विशेष है कि यहां देवों के अपने सभी उदयस्थानों में बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान ही होते हैं, अन्य कोई सत्तास्थान नहीं होते हैं । 1 अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक मिथ्यादृष्टि को तीस और इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान देव या नरक गति योग्य है और उसे पर्याप्त मिथ्यादृष्टि ही बांधते हैं । इसीलिये उक्त दो उदयस्थान ग्रहण किये हैं । उनमें से तीस प्रकृतिक उदयस्थान मनुष्य और तिर्यच दोनों को होता है और इकत्तीस प्रकृति रूप उदयस्थान मात्र तिर्यंचों को ही होता है । अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को बानवे, नवासी, अठासी, छियासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । उनमें देव या नरक गति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते तिर्यंच को तीस और इकत्तीस प्रकृति रूप उदयस्थान में बानवै, अठासी और छियासी प्रकृतिक ये तीनतीन सत्तास्थान होते हैं । मनुष्य को देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर उपर्युक्त तीन सत्तास्थान होते हैं और नरकगतियोग्य बंध करते मनुष्य को बानवं, नवासी, अठासी, छियासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान संभव हैं । उनमें बानवै और अठासी प्रकृतिक तो सामान्यतः होता है । अस्सी प्रकृतियों की सत्ता लेकर कोई एकेन्द्रिय जीव मनुष्य में उत्पन्न हो, वहां देवद्विक और वैक्रियचतुष्क अथवा नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क बांधे तब छियासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । तथा १. यहां दो उदयस्थान बताये हैं । इससे प्रतीत होता है कि उत्तर वैक्रिय शरीरी की विवक्षा नहीं की है । अन्यथा इसी अधिकार की गाथा ९६ में अट्ठाईस प्रकृतियों के बंध में पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतियों के उदय में वैक्रिय शरीरी मिथ्यादृष्टि मनुष्यों और तिर्यंचों का भी ग्रहण किया है । अतः उस अपेक्षा यहां पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतिक आदि पांच इस तरह छह उदयस्थान भी हो सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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