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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २६१ सत्तास्थान होता है। तेज, वायुकायिक जीवों में जाकर मनुष्यद्विक की उद्वलना करें तब अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। मनुष्यद्विक की उद्वलना तेज-वायुकाय में गया जीव ही करता है, अन्य कोई नहीं करता है। तेज और वायुकाय में से निकलकर विकलेन्द्रिय या तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हो और जब तक मनुष्यद्विक को न बांधे, तब तक यानि अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उनको भी अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । तत्पश्चात् वे अवश्य मनुष्य द्विक का बंध करते हैं, जिससे उनको अस्सी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। इस प्रकार सामान्य से मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में बंध, उदय और सत्तास्थानों का कथन करके अब उनके संवेध का विचार करते हैं___ अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियों को बांधते मिथ्यादृष्टि को मिथ्यात्वगुणस्थान के उदययोग्य सप्रभेद सभी नौ उदयस्थान जानना चाहिये । अर्थात् नौ में से किसी भी उदयस्थान में और उनके किसी भी भंग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि तेईस प्रकृतियों का बंध करता है । मात्र इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक इन छह उदयस्थानों में देवों ओर नारकों संबन्धी संभव भंग नहीं होते हैं। क्योंकि तेईस प्रकृतियां अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर बंधती हैं किन्तु देव वहाँ उत्पन्न नहीं होने से अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। नारक भी तेईस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। क्योंकि नारकों के तो एकेन्द्रिययोग्य किसी भी बंधस्थान का बंध नहीं होता है । जिससे देवों और नारकों की अपेक्षा संभव उदयस्थानों और उनके भंगों का तेईस प्रकृतिक बंधस्थान में निषेध किया है। सत्तास्थान पांच होते हैं। जो इस संख्यात्मक हैं जिन्होंने लब्धि प्रत्ययिक वैक्रिय शरीर किया हो ऐसे मनुष्य तियं च भी क्लिष्ट अध्यवसाय के द्वारा एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियों का बंध कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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