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पंचसंग्रह : १०
तर, पचहत्तर, नौ, और आठ प्रकृतिक । इनमें से मिथ्यादृष्टि के छह सत्तास्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं- बानवे, नवासी, अठासी, छियासी, अस्सी और अठहत्तर प्रकृतिक । 2 इनमें से बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान चारों गति के आहारकचतुष्क की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टियों के होता है तथा मिथ्यादृष्टि के आहारक और तीर्थंकर नाम की एक साथ सत्ता नहीं होने से तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान का निषेध किया है ।
किसी जीव ने नरकायु का बंध करने के बाद क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उपार्जित कर तीर्थंकरनाम का निकाचित बंध किया । तत्पश्चात् वह जीव नरक में जाते अपनी आयु के चरम अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व का वमन कर मिथ्यात्वी होकर नरक में गया और वहाँ पर्याप्त होने के बाद पुनः क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उपार्जित करे। ऐसे जीव को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में तीर्थंकरनाम की सत्ता अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होती है । जिससे तीर्थंकरनाम युक्त नवासी प्रकृतियों की सत्ता अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त मिथ्यात्वगुणस्थान में संभव होने से नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान मिथ्यात्व गुणस्थान में बताया है ।
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आहारकचतुष्क और तीर्थंकर नाम रहित अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान चारों गति के मिथ्यादृष्टियों के संभव है । अठासी की सत्ता वाला यथायोग्य रीति से एकेन्द्रियों में जाकर देवद्विक या नरकद्विक की उवलना करे तब छियासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । छियासी प्रकृतियों की सत्ता वाले एकेन्द्रिय अनुवलित देवद्विक या नरकद्विक और वैक्रिय चतुष्क की उवलना करें तब अस्सी प्रकृतिक
१. दि० साहित्य में ६४, ६२, १, ६०, ८८, ८४, ७७, १० और ६ प्रकृतिक ये तेरह सत्तास्थान कर्मकाण्ड गाथा ६०६
२. दिगम्बर साहित्य में ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२ प्रकृतिक ये छह सतास्थान बताये हैं । देखिये पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गा. ४०३
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८२, ८०, ७९, ७८, ताये हैं । देखिए गो.
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