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पंचसंग्रह : १०
योग - उपयोग और लेश्या के भेद से बहुत से भेद हैं । जिनको प्राप्त करने का उपाय इस प्रकार है
जिस किसी भी गुणस्थान में योगादि की जितनी संख्या हो, उस संख्या के साथ उस-उस गुणस्थान में होने वाले भंगों और पदों का गुणा करने से उस उस गुणस्थान के योग आदि के भेद से होने वाले भंगों और पदों की संख्या प्राप्त होती है ।
अब इस सूत्र के अनुसार योगादि के भेद से मोहनीय कर्म के भंगों को बतलाते हैं । उसमें भी सुगम होने के कारण पहले उपयोग की अपेक्षा वर्णन करते हैं ।
उपयोगापेक्षा मोहनीय कर्म के उदयभंग
उदयाणुवयोगेसु सगसयरिसया तिउत्तरा होंति ।
पण्णासपय सहस्सा तिष्णिसया चेव पण्णरसा ॥ ११८ ॥ शब्दार्थ - उदयाणुवयोगेसु — उपयोग के भेद से होने वाले उदयभंग, सगसयरिसया तिउत्तरा - सत्तहत्तर सौ तीन, होंति — होते हैं, पण्णासपयसहस्सा- - पचास हजार पद, तिष्णिसया - तीन सौ चैव-ओर इसी प्रकार, पण्णरसा - पन्द्रह |
गाथार्थ - उपयोग के भेद से होने वाले उदयभंग सतहत्तर सौ तीन होते हैं और इसी प्रकार उदय पद पचास हजार तीन सौ पन्द्रह हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में योग के संबन्ध में बहुत कहने योग्य होने से उसको छोड़कर पहने उपयोग के भेद से होने वाले मोहनीय कर्म के उदयभंगों का विचार किया है
मिथ्यात्व गुणस्थान में आठ चोबीसी हैं । सासादन में चार, मिश्र में चार, अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में आठ देशविरत गुणस्थान में आठ, प्रमत्तसंयत में आठ, अप्रमत्तसंयत में आठ और अपूर्वकरण गुणस्थान में चार चौबीसी होती हैं। कुल मिलाकर ये चौबीसीबावन हैं । तथा
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