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तायें इतनी रूढ़ हो चुकी थीं कि जिनको तत्काल बदला जाना संभव नहीं हो सका। __इस सामान्य भूमिका के आधार पर अब संक्षेप में सर्वप्रथम पंचसग्रह नामकरण के कारण को स्पष्ट करते हैं। पंचसंग्रह परिचय
जैन वाङमय की श्रीवृद्धि में दोनों जैन परम्पराओं के आचार्य प्रयत्नशील रहे हैं। उन्होंने स्वतन्त्र रूप से भी ग्रन्थों की रचना की और समय की आवश्यकता तथा अनुकूलता देखकर विभिन्न ग्रन्थों का संकलन कर नये नाम से भी ग्रन्थों की रचना की। पंचसंग्रह इसी प्रकार का एक सग्रह ग्रन्थ है । इसमें बंध, बंधक आदि पांच द्वार हैं, जो जैनदर्शन के लक्ष्यभूत मुख्य विषय हैं। इनके आधार पर दोनों ही परंपरा के आचार्यों ने पंचसंग्रह यही नाम देकर तदाधार से स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचनाएँ की और उत्तरवर्ती काल में उन पर अनेक टीका, टिप्पण, चूर्णियों का लेखन किया गया। जिससे मूलग्रन्थगत विशेषताओं का सरलता से स्पष्टीकरण हो सका।
वर्तमान में पंचसंग्रह नाम के अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें से कुछ प्राकृत में और कुछ संस्कृत में रचे गये हैं । इनकी रचना दोनों परम्पराओं के आचार्यों द्वारा हुई है । इनके सम्बन्ध में यह ज्ञातव्य है कि दोनों परंपराओं द्वारा रचित या संकलित पंचसंग्रह में जिन पांच ग्रन्थों या प्रकरणों का उल्लेख किया जाता है, उनमें से एकाध को छोड़कर प्रायः सभी ग्रन्थों या मूल प्रकरणों के रचयिताओं के नामादि अभी तक भी अज्ञात हैं। मूल ग्रन्थों की प्राचीनता तो सुतरां प्रमाणित है और अध्ययन करने पर ऐसा ज्ञात होता है कि उनकी रचना उस समय हुई, जबकि जैन परम्परा अक्षुण्ण थी, उसमें श्वेताम्बर-दिगम्बर जसे भेद उत्पन्न नहीं हुए थे। कालान्तर में जब इन दोनों भेदों ने अपना-अपना अस्तित्व सुदृढ़ कर लिया तब अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार पूर्व परम्परा से चले आये श्रु त को निबद्ध करना प्रारम्भ किया। उदाहरणार्थ - संस्कृत ग्रन्थों में जैसे तत्वार्थ सूत्र अपनी-अपनी
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