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पंचसंग्रह : १ द्वीन्द्रियों के २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक ये छह उदयस्थान होते हैं । जिनका विवरण इस प्रकार है
पूर्वोक्त एकेन्द्रिययोग्य इक्कीस प्रकृतियों में से कुछ प्रकृतियों में फेरफार करके द्वीन्द्रिय के लिये भी जानना चाहिये । वे इस प्रकार - तियंचगति, तियंचानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्त - अपर्याप्त में से एक, दुभंग, अनादेय, यशःकीर्ति अयशः कीर्ति में से एक, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और निर्माण नाम । इन इक्कीस प्रकृतियों का उदय भवान्तर में जाते द्वीन्द्रिय को होता है । यहाँ तीन भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं
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१. अपर्याप्त नाम के उदय वाले द्वीन्द्रिय को अयशः कीर्ति के साथ एक भंग और
२- ३. पर्याप्त नाम के उदय वाले द्वीन्द्रिय को यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति के साथ एक-एक भंग। इस प्रकार दो भंग होते हैं । जो कुल मिलाकर तीन भंग हो जाते हैं ।
तत्पश्चात् शरीरस्थ - उत्पत्तिस्थान में उत्पन्न हुए द्वीन्द्रिय को पूर्वोक्त इक्कीस के उदयस्थान में से आनुपूर्वीनाम को कम करके उसमें प्रत्येक, उपघात, औदारिक- शरीर, औदारिक अंगोपांग, हुण्डसंस्थान और सेवार्त संहनन इन छह प्रकृतियों को मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके भी इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान की तरह तीन विकल्प होते हैं ।
एकेन्द्रिय को अंगोपांग और संहनन का उदय नहीं होता है, किन्तु द्वीन्द्रिय को होता है, जिससे शरीरस्थ एकेन्द्रिय के चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान में इन दो प्रकृतियों को मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । तथा
परघायखगइजुत्ता अडवीसा गुणतीस सासेणं ।
तीसा सरेण सुज्जोव तित्थ तिरिमणुय इगतीसा ॥८२॥
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