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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २२ १५५ शब्दार्थ-परघायखगइजुत्ता-पराघात और विहायोगति सहित, अडवीसा-अट्ठाईस प्रकृतिक, गुणतीस-उनतीस प्रकृतिक, सासेणं-उच्छ्वास सहित, तीसा-तीस प्रकृतिक, सरेण- स्वरयुक्त करने पर, सुज्जोव-उद्योत सहित, तित्थ-तीर्थकर, तिरिमणुय-तिर्यंचों और मनुष्यों में, इगतीसाइकत्तीस प्रकृतिक। ___गाथार्थ-पराघात और स्वगतियुक्त अट्ठाईस का उदय होता है। उच्छवास युक्त उनतीस, स्वरयूक्त तीस, और उद्योतयक्त इकत्तीस का उदय होता है । तिर्यंचों में उद्योत के उदययुक्त इकत्तीस का और मनुष्यों में तीर्थकरनाम का उदययुक्त इकत्तीस का उदय होता है। विशेषार्थ-पूर्वोक्त छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में पराघात और अशुभ विहायोगति को मिलाने द्वीन्द्रियादि सभी तिर्यंचों और मनुष्यों को अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इस अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में द्वीन्द्रिय के उदयस्थान में यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति का परावर्तन करने से दो भंग होते हैं। यहाँ से समस्त उदयस्थान पर्याप्त नाम के उदय वाले को ही होते हैं। जिससे अपर्याप्त नाम के उदय के भंग नहीं होते हैं। तत्पश्चात् प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् यश:कीर्ति-अयशःकीति इन दो पदों के दो भंग होते हैं । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय होने से पहले किसी को उद्योत का उदय होता है, जिससे अट्ठाईस प्रकृतियों में उद्योत का उदय मिलाने पर भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् दो भंग होते हैं और कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के चार भंग होते हैं। १ यहाँ द्वीन्द्रिय के उदयस्थानों का कथन करने के प्रसंग मेंस मान्य से तिर्यंच और मनुष्यों के उदयस्थान ग्रंथलाघव की दृष्टि से कहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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