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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०५
२११ क्षपकश्रेणि में वर्तमान अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानों में चार प्रकृतियों का बंध, छह प्रकृतियों की सत्ता का एक भंग होता है। वह इस प्रकार-चार प्रकृतियों का बंध, चार प्रकृतियों का उदय और छह प्रकृतियों की सत्ता। क्षपक आत्मा अत्यन्त विशुद्धि वाली होने से उसे निद्रा का उदय नहीं होता है, जिससे पांच का उदय सम्भव नहीं होने से एक ही भंग होता है।
बंधविच्छेद होने के बाद क्षीणमोहगुणस्थान में छह और चार की सत्ता रहते दो भंग इस प्रकार होते हैं-(१) चार का उदय, छह की सत्ता, यह विकल्प क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त होता है और चरम समय में, (२) चार का उदय और चार की सत्ता यह भंग होता है।
इस प्रकार दर्शनावरणकर्म का गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्ता का संवेध जानना चाहिये। अब वेदनीयकर्म के संवेध का विचार करते हैं। गुणस्थानों में वेदनीयकर्म का संवेध
चत्तारि जा पमत्तो दोण्णि उ जा जोगि सायबंधणं । सेलेसि अबंधे चउ इगि सते चरिमसमए दो ॥१०॥ शब्दार्थ-चत्तारि-चार, जा-तक, पमत्तो-प्रमत्तसंयतगुणस्थान, दोणि-दो, उ-और, जा-तक, जोगि--सयोगिकेवली, सायबंधेणं-साता के बंध से, सेलेसि-अयोगिकेवलीगुणस्थान में, अबंधे-बंधविच्छेद के बाद, चउ-चार, इगि--एक, संते-सत्ता के, चरिमसमए–चरमसमय में, दो-दो।
गाथार्थ-प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त वेदनीयकर्म के चार भंग होते हैं। साता के बंध से होने वाले दो भंग सयोगिकेवली पर्यन्त होते हैं। बंधविच्छेद के बाद अयोगिकेवलीगुणस्थान में चार और चरम समय में एक की सत्ता हो तब दो भंग होते हैं। विशेषार्थ-वेदनीयकर्म के दो भेद हैं--साता और असाता। इन
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