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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, १००
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अपूर्वकरण इन पाँच गुणस्थानों में ह३, ६२, ८६ और ८८ प्रकृतिक ये चार-चार सत्तास्थान होते हैं ।
अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में उपशमश्रेणि की अपेक्षा ह३, २, ८६,८८ प्रकृतिक ये चार और क्षपकश्रेणि में तेरह प्रकृतियों का क्षय होने के बाद ८०, ७६, ७६, ७५ प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं ।
उपशान्तमोह गुणस्थान में ३,६२,८६,८८ प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं ।
क्षीणमोह और सयोगिकेवली गुणस्थानों में ८०, ७६, ७६, ७५ प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं ।
अयोगिकेवली गुणस्थान में ८०, ७६, ७६, ७५, ६, ८, प्रकृतिक ये छह सत्तास्थान होते हैं । इनमें से आदि के चार भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा द्विचरम समय पर्यन्त और चरम समय में तीर्थंकर केवली को नौ प्रकृतिक और सामान्यकेवली को आठ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ।
अमुक-अमुक गुणस्थान की अपेक्षा अनेक सत्तास्थान होते हैं, परन्तु एक जीव को एक समय में कोई भी एक ही सत्तास्थान होता है, एक साथ अनेक सत्तास्थान नहीं होते हैं और एक गुणस्थान में भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा अनेक सत्तास्थान होते हैं ।
इस प्रकार से गुणस्थानों में नामकर्म के सत्तास्थानों का वर्णन जानना चाहिए | अब बंध, उदय और सत्तास्थानों का परस्पर संवेध का कथन करते हैं ।
नामकर्म के बंधादि स्थानों का संवेध
नवपंचोदयसत्ता तेवीसे पण्णवीस छब्बीसे ।
अठ चउरट्ठवीसे नवसत्तिगुणतीस तीसे य ॥ ६६ ॥ rahah इगती एक्के एक्कुदय अट्ठ संतसा । उवरयबंधे दस दस नामोदय संतठाणाणि ॥ १०० ॥
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