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पंचसंग्रह : १०
७. मनुष्यायु का उदय, तिर्यंच- मनुष्यायु की सत्ता । ८. मनुष्यायु का उदय, मनुष्य मनुष्यायु की सत्ता । ये तीनों विकल्प अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त होते हैं । क्योंकि नरक, तिर्यंच या मनुष्य आयु का बंध करने के पश्चात् मनुष्य को, सम्यक्त्व देश - विरति अथवा सर्वविरति प्राप्त होना संभव है ।
६. मनुष्यायु का उदय और देव मनुष्यायु की सत्ता, यह विकल्प उपशांत मोह गुणस्थान पर्यन्त होता है । क्योंकि देवायु का बंध होने के बाद मनुष्य उपशमश्रेणि पर आरोहण कर सकता है और ग्यारहवां गुणस्थान उपशमश्रेणि की अन्तिम मर्यादा है ।
इस प्रकार मनुष्यगति सम्बन्धी नौ भंग जानना चाहिये । पूर्वोक्त देव नारकाश्रयी पांच पांच तथा तिर्यंच - मनुष्याश्रयी नौ-नौ विकल्पों को मिलाने पर आयुकर्म के अट्ठाईस भंग होते हैं ।
अब दर्शनावरणकर्म के संवेध विकल्पों का प्रतिपादन करने के लिये, उसके बंध, उदय और सत्तास्थानों का कथन करते हैं । दर्शनावरणकर्म के बंधादि स्थान
नव छच्चउहा बज्झइ दुगट्ठदसमेण दंसणावरणं । नव बायरम्मि सन्तं छक्कं चउरो य खीणमि ॥१०॥ शब्दार्थ- -नव छच्चउहा - नौ, छह और चार प्रकार से, बज्झइ - बंधता है, दुगट्ठदसमे दो, आठ और दसवें तक, दंसणावरणं - दर्शनावरणकर्म, नव-नौ, बायरम्मि - बादरसंप रायगुणस्थान में, संतं - सत्ता में, छक्कं चउरो - छह और चार, य— और, खीणम्मि- क्षीणमोहगुणस्थान में ।
गाथार्थ- नौ, छह और चार प्रकार से दर्शनावरण कर्म अनुक्रम से दो, आठ और दसवें गुणस्थान तक बंधता है । नौ प्रकृतियाँ बादरसंपरायगुणस्थान में सत्ता में होती हैं तथा छह और चार की सत्ता क्षोणमोह गुणस्थान में होती है ।
विशेषार्थ - गाथा में दर्शनावरणकर्म के बंध और सत्तास्थानों को बतलाकर उनके स्वामियों का निर्देश किया है ।
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