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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,१००
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बंधविच्छेद होने के अनन्तर दस उदयस्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं- बीस, इक्कीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस नौ और आठ प्रकृतिक । इनमें से उपशान्तमोहगुणस्थान में तीस प्रकृति रूप एक ही उदयस्थान होता है और प्रारम्भ के तेरानव प्रकृतिक आदि चार सत्तास्थान होते हैं । क्षीणमोह गुणस्थान में भी तीस प्रकृतिक एक ही उदयस्थान होता है और अन्तिम चार सत्तास्थान होते हैं ।
सयोगिकेवली गुणस्थान में नौ और आठ प्रकृतिक के सिवाय उपर्युक्त बीस आदि प्रकृतिक सभी उदयस्थान होते हैं । उनमें से बीस और इक्कीस प्रकृतियों का उदय अनुक्रम से केवलीसमुद्घात में कार्मणयोग में वर्तमान सामान्यकेवली और तोर्थंकरकेवली को होता है । औदारिकमिश्रकाययोग में वर्तमान उनको ही अनुक्रम से छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतिक रूप उदय होता है । स्वभावस्थ सामान्य केवली को तीस प्रकृतिक और स्वर का रोध करने पर उन्हीं को उनतीस प्रकृतिक और उच्छ्वास का रोध करें तब अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
स्वभावस्थ तीर्थंकर भगवान को इकत्तीस प्रकृतिक, स्वर का रोध करने पर तीस प्रकृतिक और उच्छ्वास का रोध करें तब उनतीस प्रकृतिक उदय होता है । इस प्रकार तीस और उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकार से प्राप्त होते हैं ।
अयोगिकेवली तीर्थंकर को नौ प्रकृतियों का और सामान्य केवली को आठ प्रकृतियों का उदय होता है और सत्तास्थान दस होते हैं, जो इस प्रकार हैं- तेरानवं, वानवे, नवासी, अठासी, अस्सी, उन्यासी, छियत्तर, पचहत्तर, नौ और आठ प्रकृतिक । जिनका विवरण इस प्रकार है
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बीस प्रकृतिक उदयस्थान में उन्यासी और पचहत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । इसी प्रकार छब्बीस और अट्ठाईस प्रकृतियों
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