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________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०१ २०७ छियत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं और सामान्य केवली को इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है | अयोगिकेवली गुणस्थान में नौ प्रकृतियों के उदय में तीर्थंकर भगवान को अयोगिगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त अस्सी और छियत्तर प्रकृतिक तथा चरम समय में नौ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । आठ प्रकृतियों के उदय वाले अयोगि सामान्य केवली को अयोगि गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त उन्यासी और पचहत्तर प्रकृतिक एवं चरम समय में आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इस प्रकार अबंधक के दस उदयस्थान संबन्धी तीस सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार से नामकर्म का विवेचन जानना चाहिये एवं सभी कर्मों के बंध, उदय और सत्तास्थानों का स्वतन्त्र रूप से और संवेध द्वारा गुणस्थानों में विचार किया । अब सभी कर्मों के बंध, उदय और सत्ता को संवेध द्वारा गुणस्थानों में विचार करने की दृष्टि से पहले ज्ञानावरण और उसके समान संख्या वाले अंतराय कर्म का विचार करते हैं । ज्ञानावरण, अंतराय कर्म का गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध बंधोदयसंते पण पण पढमंतिमाण जा संतोइण्णाइं पुण उवसमखोणे परे सुहुमो नत्थि ॥ १०१ ॥ शब्दार्थ - बंधोदयसंतेसु - बंध, उदय और सत्ता में, पण पण - पांच-पांच, पढमंतिमाण- पहले और अंतिम कर्म को, जा— तक, पर्यन्त, सुहुमो - सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान, संतोइण्णाई - सत्ता और उदय, पुण-पुनः, उवसमखीणेउपशांतमोह और क्षीणमोह में, परे-आगे, नत्थि - नहीं है । १ एतद् विषयक प्रारूप परिशिष्ट में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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