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सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०१
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छियत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं और सामान्य केवली को इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है |
अयोगिकेवली गुणस्थान में नौ प्रकृतियों के उदय में तीर्थंकर भगवान को अयोगिगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त अस्सी और छियत्तर प्रकृतिक तथा चरम समय में नौ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । आठ प्रकृतियों के उदय वाले अयोगि सामान्य केवली को अयोगि गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त उन्यासी और पचहत्तर प्रकृतिक एवं चरम समय में आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
इस प्रकार अबंधक के दस उदयस्थान संबन्धी तीस सत्तास्थान होते हैं ।
इस प्रकार से नामकर्म का विवेचन जानना चाहिये एवं सभी कर्मों के बंध, उदय और सत्तास्थानों का स्वतन्त्र रूप से और संवेध द्वारा गुणस्थानों में विचार किया । अब सभी कर्मों के बंध, उदय और सत्ता को संवेध द्वारा गुणस्थानों में विचार करने की दृष्टि से पहले ज्ञानावरण और उसके समान संख्या वाले अंतराय कर्म का विचार करते हैं ।
ज्ञानावरण, अंतराय कर्म का गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध
बंधोदयसंते पण पण पढमंतिमाण जा
संतोइण्णाइं पुण
उवसमखोणे परे
सुहुमो
नत्थि ॥ १०१ ॥
शब्दार्थ - बंधोदयसंतेसु - बंध, उदय और सत्ता में, पण पण - पांच-पांच, पढमंतिमाण- पहले और अंतिम कर्म को, जा— तक, पर्यन्त, सुहुमो - सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान, संतोइण्णाई - सत्ता और उदय, पुण-पुनः, उवसमखीणेउपशांतमोह और क्षीणमोह में, परे-आगे, नत्थि - नहीं है ।
१ एतद् विषयक प्रारूप परिशिष्ट में देखिये ।
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