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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११६ २३३ वे सब मिलकर चौबीस चौबीसी होती हैं । उनको छह लेश्याओं से गुणा करने पर एक सौ चवालीस हुए और देशविरत में आठ, प्रमत्तसंयत में आठ और अप्रमत्तसंयत में आठ चौबीसी हैं। इनका कुल योग चौबीस चौबीसी हुआ । इनको तीन लेश्याओं से गुणा करने पर बहत्तर चौबीसी हुईं। अपूर्वकरण गुणस्थान में चार चौबीसी हैं । परन्तु यहाँ लेश्या एक ही होने से एक से गुणा करने पर चार चौबीसी ही होती हैं । इस प्रकार पहले मिथ्यात्वगुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त सब मिलाकर दो सौ बीस चौबीसी हुई । इनको चौबीस से गुणा करने पर बावन सौ अस्सी भंग हुए। उनमें द्विकोदय के बारह और एकोदय के पांच, कुल सत्रह भंगों को जोड़ने पर बावन सौ सत्तानवे (५२६७) उदयभंग होते हैं । ये सब लेश्या के भेद से गुणस्थानों में संभव मोहनीयकर्म के उदयभंग जानना चाहिये । अब लेश्या के भेद से होने वाले उदयपदों का कथन करते हैं मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अड़सठ ध्रुवपद, सासादान में बत्तीस, मिश्र में बत्तीस और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में साठ ध्रुवपद हैं । इन सबका जोड़ एक सौ बानव होता है । इन एक सौ बानवे को छह लेश्या से गुणा करने पर ग्यारह सौ बावन गुणनफल होता है । देशविरत में बावन, प्रमत्त में चवालीस, अप्रमत्त में चवालीस ध्रुवपद हैं। जो मिलकर एक सौ चालीस होते हैं । इनको तीन लेश्या के साथ गुणा करने पर चार सौ बीस होते हैं । अपूर्वकरण में बीस ध्रुवपद हैं। यहां एक ही लेश्या होने से एक से गुणा करने पर बीस ही होते हैं । सब मिलाकर पन्द्रह सौ बानवै ध्रुवपद चौबीसी होती हैं । उनको चौबीस से गुणा करने पर अड़तीस हजार दो सौ आठ पद होते हैं । उनमें नौवें, दसवें गुणस्थान के पूर्व में कहे द्विकोदय और एकोदय के उनतीस पदों को जोड़ने पर कुल मिलाकर अड़तीस हजार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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