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सप्ततिका - -प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८०
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८. सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक - अयशः कीर्ति, ६. सूक्ष्म-पर्याप्त साधारणअयशः कीर्ति और १० सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण - अयशः कीर्ति ।
बादर वायुकायिक के लिये वैक्रिय शरीर करने पर औदारिक के स्थान पर वैक्रिय का उदय कहना चाहिये । उसे भी उपर्युक्त चौबीस प्रकृतियों का उदय होता है । मात्र यहाँ बादर-पर्याप्त प्रत्येक और अयशः कीर्ति के साथ एक ही भंग होता है। तेज तथा वायुकाय के जीवों के यशःकीर्ति और साधारण नाम का उदय होता ही नहीं है । जिससे तदाश्रित विकल्प भी नहीं होते हैं । इस प्रकार चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान के ग्यारह भंग होते हैं ।
तत्पश्चात् शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त उस एकेन्द्रिय को पूर्वोक्त चौबीस प्रकृतियों के उदय में पराघात के उदय को मिलाने पर पच्चीस प्रकृतियों का उदयरूप स्थान होता है । यह पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान पर्याप्त-नामकर्म के उदय वाले को ही होता है, जिससे अपर्याप्तनामकर्म के विकल्प के भंग नहीं होते हैं । अपर्याप्तनाम के उदय वाले किसी भी जीव को अपने-अपने उदयस्थानों में से आदि के दो उदयस्थान ही होते हैं । यहाँ छह भंग इस प्रकार होते हैं - १. बादर - प्रत्येकयश: कीर्ति, २ . बादर- प्रत्येक - अयशः कीर्ति, ३. बादर - साधारण-यश:कीर्ति, ४. बादर - साधारण - अयशः कीर्ति, ५. सूक्ष्म - प्रत्येक - अयशः कीर्ति और ६. सूक्ष्म - साधारण - अयशः कीर्ति ।
बादर वायुकायिक को वैक्रिय शरीर करने पर उसको शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होने के बाद पराघात का उदय मिलाने पर भी पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ बादर - पर्याप्त प्रत्येकअयशः कीर्ति यह एक ही भंग होता है । सब मिलाकर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान के सात विकल्प होते हैं ।
तत्पश्चात् प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पच्चीस प्रकृतियों के उदय में कहे गये अनुसार छह भंग होते हैं । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय होने से पहले किसी को
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