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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ ३०३ प्रत्येक में इस प्रकार की संख्या वाले तीन-तीन सत्तास्थान होते हैंवानवै, अठासी, छियासी प्रकृतिक । इनमें से छियासी प्रकृतिक मिथ्यादृष्टि को ही होता है, सम्यग्दृष्टि को नहीं होता है। क्योंकि उनको अवश्य ही देवद्विक का बंध संभव है । इस प्रकार सभी बंधस्थान और उदयस्थानों की अपेक्षा दो सौ अठारह सत्तास्थान होते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये - तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक इन प्रत्येक बंधस्थान में चालीस चालीस और अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में अठारह सत्तास्थान होते हैं । जिनका कुल योग दो सौ अठारह है । अब मनुष्यगति के बंध, उदय और सत्तास्थानों का विचार करते हैं । मनुष्यगति – मनुष्य को तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस और एक प्रकृतिक ये आठ बंधस्थान होते हैं । इन सभी बंधस्थानों का स्वरूप जैसा पूर्व में बताया जा चुका है, उसी प्रकार यहाँ सप्रभेद समझना चाहिये । क्योंकि मनुष्य चारों गति योग्य बंध करता है और उसे सभी गुणस्थान संभव हैं । उदयस्थान ग्यारह होते हैं । जो इस प्रकार हैं- बीस, इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस अट्ठाईस उनतीस, तीस, इकत्तीस नौ " , 1 और आठ प्रकृतिक । ये सभी उदयस्थान स्वभावस्थ मनुष्य, वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी मनुष्य एवं तीर्थंकर, अतीर्थंकर सयोगि और अयोगि केवली की अपेक्षा पूर्व की तरह सप्रभेद समझ लेना चाहिये । चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान मात्र एकेन्द्रियों में ही होता है, इसलिये उसको यहाँ ग्रहण नहीं किया है । सत्तास्थान ग्यारह् होते हैं । वे इस प्रकार हैं - तेरानवे, बानवे, नवासी, अठासी, छियासी, अस्सी, उन्यासी, छियत्तर, पचहत्तर, नौ और आठ प्रकृतिक । यद्यपि नामकर्म के बारह सत्तास्थान हैं, लेकिन उनमें से अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान मनुष्यों में नहीं होता है । क्योंकि मनुष्य को मनुष्यद्विक की सत्ता अवश्य होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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