SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १११,११२,११३ २२१ गाथार्थ – मोहनीयकर्म के संबन्ध में सामान्य प्ररूपणा करते समय गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्ता के स्थानों का विचार किया है। अतः यहाँ पुनः उनका विचार न करके अव्याकृतोदय (सामान्य उदय) और गुणस्थानों में उदय के पदसमूह कहूँगा । जिस गुणस्थान में जितनी चौबीसी होती हैं उनका उस गुणस्थान के साथ गुणा करके जोड़ना और फिर चौबीस से गुणा करके उसमें इतर पदों (नौवें गुणस्थान के पदों) को मिलाने पर पदों की कुल संख्या होती है । ( वह पद संख्या) बंधक जीवों के भेद से ( मोहनीय कर्म के) साठ रहित सात हजार, अथवा त्रेपन रहित सात हजार अथवा उनतीस रहित सात हजार होती है । विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में से प्रथम में मोहनीय कर्म के उदय के पदसमूह कहने की प्रतिज्ञा की है और शेष दो में पदसमूहों का वर्णन किया है । जो इस प्रकार है पूर्व में जब मोहनीय कर्म के संबन्ध में सामान्य वर्णन किया गया था, तब प्रसंगोपात्त गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्ता के स्थानों का भी विचार किया जा चुका है । परन्तु वहाँ सामान्य उदय और गुणस्थानों के उदय के पदसमूह - पदप्रमाण' का संकेत नहीं किया था । जिसका यहाँ निर्देश करते हैं दस प्रकृतिक आदि जिन उदयस्थानों में जितनी संख्या वाली चौबीसी होती हों, जैसे कि मिथ्यादृष्टि के दस प्रकृतियों के उदय की १ पद यानी एक उदयस्थान की प्रकृतियां जैसे कि दस के उदय की एक चौबीसी यानी चौबीस भंग होते हैं - दस प्रकृतियों का उदय क्रोधादि के फेरफार से चौबीस प्रकार से होता है । चोबीसों भंगों में दस-दस प्रकृतियाँ होती हैं, जिससे दस को चौबीस से गुणा करने पर दो सौ चालीस पदअलग-अलग प्रकृतियां होती हैं । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy